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आधुनिक कहानी का परिपार्श्व/६५ अहं है । मानवता का यह अभिशाप कैसे दूर हो ? लेखक का मत है कि अहं को असीमत्व प्रदान करना, दूसरों का दूसरा न समझकर अपना समझना-यही अहं का विकास है और यही अहंमन्यता का विनाश है । अपने जीवन के साथ संघर्ष, भूख और बेकारी से संघर्ष करते हुए भगवती बाबू ने आत्मसम्मान और 'अपनेपन' की रक्षा की और यद्यपि वे बहुत दिनों तक खोते ही खोते रहे, पाया कुछ नहीं, तो भी अहं को असीमत्व प्रदान करने की दृष्टि से उन्हें एक सत्य मिल गया। भगवती बाबू यह स्वीकारते हैं कि मनुष्य का अपना हित कठोर सत्य है। किन्तु हमारे प्रत्येक कार्य का एक और पहलू होता है-वह है दूसरों का सत्य । प्रत्येक कार्य का निजी पहलू बुरा नहीं है; अच्छा भी नहीं। वह प्राकृतिक है। मनुष्य अपने को संतुष्ट करना चाहता है; यह भी स्वाभाविक है। दूसरों का रक्त चूसने वाला और महादानी दोनों ही आत्मतुष्टि की दृष्टि से अपने-अपने कर्म में प्रवृत्त होते हैं, यह सत्य है । किन्तु दूसरों का हित मानवता का सत्य है । अपने लिए तो पशु भी जीता है। जो उससे ऊपर उठा हुआ है, वही मनुष्य है । सीमित अहं पशुता के निकट और मानवता से दूर है। अपने सत्य और मानवता के सत्य का सामंजस्य उपस्थित करना ही अहं को असीमत्व प्रदान करना है। संक्षेप में, भगवती बाबू सैद्धांतिक दृष्टि से नियतिवाद, परिस्थितियों के चक्र और अहं के असीमत्व इन तीनों बातों में विश्वास करते हैं। उनका यह जीवन-दर्शन जीवन के व्यावहारिक अनुभवों पर आधारित है, न कि तात्विक चिंतन पर और उसमें परस्पर विरोध है। नियति और परिस्थिति के चक्र की बात उठा कर अहं के विकास की चर्चा करना बेतुका सा लगता है । भले ही कुछ लोग उनके इस जीवन-दर्शन को अपंगु बनाने वाला सम में; भले ही कोई उनसे सहमत न हो,किन्तु भगवती बाबू किसी को बाध्य नहीं करते, और न बाध्य करने का उन्हें अधिकार है।
परस्पर विरोध के रहते हुए भी भगवती बावू का जीवन-दर्शन अपने में बहुत बुरा नहीं है। किन्तु जैसा मैं पहले कह चुका हूँ,