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६४ अाधुनिक कहानी का परिपार्श्व प्रचार भी अधिक है। वर्तमान युग को वे कविता का युग स्वीकारते ही नहीं हैं ।
वैचारिक दृष्टि से भगवती बाबू बुद्धिवादी हैं। ज्ञान के अतिरिक्त और किसी देवता पर उनका विश्वास नहीं । वुद्धि ही मनुप्य को पशु से अलग करती है। उनका विश्वास है कि बुद्धि का विकास मानवता का चरम विकास (! ) है। वैसे बुद्धि द्वारा बहुत-सी बातें नहीं समझी जा सकती, जैसे, सृष्टि का रहस्य, तो भी बुद्धि निम्न स्तर की चीज नहीं। मनुष्य में कुरूपता और अपूर्णता दृष्टिगोचर होती है। इसलिए नहीं कि बुद्धि अर्द्ध-विकसित है, वरन् इसलिए कि मनुष्य मन की कमजोरी को बुद्धि की कमजोरी कह डालता है । ('बुद्धिवादी होने के कारण न मुझे धर्म पर विश्वास है, न उपासना पर ।') उनका विश्वास है कि बुद्धि से ही मनुष्य पूर्णता प्राप्त कर सकता है। मनुष्य जहाँ प्रकृति पर विजय प्राप्त कर रहा है, वहाँ अपनी पशुता पर विजय प्राप्त नहीं कर सका। पशुता मुंह चमकाती ही रहती है । जीवन में भावना का महत्वपूर्ण स्थान है। बुद्धि उसका नियंत्रण करती है। बुद्धि ने पशुता को थोड़ा-सा दबाया अवश्य है, किन्तु पशुता कभी-कभी उभड़ कर बुद्धि को अपना साधन बना कर महानाश का ताण्डव नृत्य करती है । पूर्ण विकास के लिए मनुष्य को अपने पर विश्वास करना चाहिए। वह स्वयं कर्ता है; स्वामी है । वुद्धि द्वारा मनुष्य को अपनी विवशता नामक कमजोरी से लड़ना है। जटिल समस्याओं के वर्तमान युग में यह और भी आवश्यक है। इन सब बातों के साथ-साथ भगवती बाबू ने 'अहं' और 'अहंमन्यता' पर भी विचार किया है । लेखक चाहता है कि प्रत्येक व्यक्ति अहंमन्यता छोड़ कर अहं का विकास करे, क्योंकि अहं व्यक्तित्व के लिए आवश्यक है। अहं और दूसरों के पार्थक्य से अहंमन्यता उत्पन्न होती है। अहंमन्यता सीमित और अविकसित अहं का गुण है, जिसमें बुद्धि और 'ज्ञान' जो मानवता के लिए वरदान स्वरूप हैं, अभिशाप बन जाते हैं। हमारी आज की दुरवस्था का मूल कारण, लेखक की दृष्टि में, यह सीमित और संकुचित