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आधुनिक कहानी का परिपार्श्व / ६३
हूँ । जो होना है, वह हो चुका है । परिस्थितियों के संघर्ष के बीच नियंता ने ही उन्हें बचाया, ऐसा उनका विश्वास है । प्रेमचन्द ने अपना निजी रूप इतना दबा दिया था कि वह उनके साहित्य में शायद ही कहीं झाँकता दिखाई देता हो । भगवती बाबू दूसरों के सत्य साथसाथ अपना सत्य कभी नहीं भूले । वे दोनों में समन्वय के पक्षपाती भले ही हों, किन्तु प्रेमचन्द की भाँति दूसरों का सत्य उनके सामने कभी प्रमुख नहीं रहा ।
जीवन- सम्बन्धी परिस्थितियों के प्रभाव के अतिरिक्त यह भी स्मरण रखना चाहिए कि भगवती बाबू का साहित्यिक जीवन कवि के रूप में प्रारम्भ हुआ । वह युग छायावाद का युग था, संक्रमण काल था; वस्तुवादी कविता के प्रति विद्रोह था । जयशंकर 'प्रसाद', पंत और 'निराला' के नाम हिन्दी में उजागर हो रहे थे। बिहार में जनार्दन
द्विज और मोहनलाल महतो 'वियोगी', मध्यप्रदेश में जगन्नाथ प्रसाद 'मिलिंद' और कानपुर में बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' तथा भगवतीचरण वर्मा ख्याति प्राप्त कर रहे थे । १९३० में भगवती बाबू ने सोचा कि कवि की अपेक्षा कथाकार के रूप में उन्हें अधिक सफलता प्राप्त हो सकेगी। वैसे १९३० के पूर्व भी उन्होंने कुछ निबंध - कहानी आदि की रचना की थी, किन्तु उस समय कविता ही उनके साहित्यिक जीवन में प्रमुख स्थान ग्रहण किए हुए थी । किन्तु कविता से आर्थिक संकट या श्राजीविका की समस्या सुलझते न देख विवश होकर उन्हें उपन्यासकहानी की ओर आना पड़ा । पैसा तो उन्हें प्रारम्भ में अधिक न मिला, किन्तु उनमें आत्म-विश्वास अवश्य बढ़ा । धीरे-धीरे वे कविता के प्रति उदासीन होते गए । उन्होंने परिस्थितिवश कविता छोड़ने की बात स्वयं स्वीकार की है । इसका उन्हें खेद भी है, क्योंकि प्रगतिवादी, प्रयोगवादी कविताएँ तो, उन्हीं के शब्दों में, दिन में दस-पाँच लिखी जा सकती हैं ! उनका यह भी विचार है कि भावना के व्यक्तीकरण में गद्य में उपन्यास और कहानी सबसे अधिक सक्षम सिद्ध हुए हैं, अतः उनका