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५८/प्राधुनिक कहानी का परिपावं समस्याओं को चित्रित करने का प्रयत्न किया है । व्यक्ति की स्मृद्धिशीलता में समाज स्वयमेव विकसित एवं गतिशील होता है-उनका ऐसा विश्वास है और उनकी कहानियों में यह भावना सर्वत्र व्याप्त मिलती है। व्यक्ति के दुःख से वे कातर हो उठते हैं और सुख की मंगल-कामना अपना उद्देश्य बना लेते हैं । उसके सुख-दुःख के दो बिन्दुओं के मध्य ही उन्होंने अपनी कला विकसित की है। उनकी कहानियों में व्यक्ति अक्सर अवसादग्रस्त रहता है और त्याग एवं सहिष्णुता का परिचय देता हुआ कष्ट सहन करता रहता है । इसका उन्होंने बड़ी भावुकता, पर अपूर्व संवेदनशीलता से चित्रण किया है। उन्होंने अपने को सत्य सुन्दरता का उपासक बताया है, क्योंकि पुरुष और स्त्री में परस्पर आकर्षण ही प्रेम के स्वरूप को निर्धारित करता है। वे स्वीकारते हैं कि प्रेम कभी विकृत नहीं होता, वह सदैव एकरस रहता है। कहना न होगा कि सरस स्थितियों का चित्रण उन्होंने बड़ी भावुकता से किया है और इस प्रकार की कहानियों में भावना का प्रवाह इतना अतिरंजित हो गया है कि उनके पात्र निर्जीव-से हो गए हैं-वे काल्पनिक स्थितियों में विचरण करते हैं और उन्हें ही सत्य का पर्याय मान लेते हैं। इस प्रकार बहुधा ह्रासोन्मुख जीवन-चित्रण की यथार्थता के स्थान पर ह्रासोन्मुख कला का विकास होने लगता है और वे कहानियाँ कदाचित बाजपेयी जी की कला का सबसे दुर्बल पक्ष उपस्थित करती हैं। खेद की बात यह है कि इस प्रकार की कहानियों की संख्या अधिक है। ___ जैसा कि ऊपर संकेत दिया जा चुका है, बाजपेयी जी की कहानियों में कथानक नाममात्र को होता है और वे केवल मनोवैज्ञानिक उहापोहों तथा पात्रों की विभिन्न मनःस्थितियों तथा उन पर पड़ने वाली प्रतिक्रियाओं से सारे कथानक का ढाँचा निर्मित करते हैं। स्पष्ट है, इस प्रक्रिया में बौद्धिकता का आग्रह अधिक रहता है और वे कहानियाँ दुरूह हो जाती हैं। उनमें सांकेतिकता और अमूर्त विधान अधिक आ जाता है । अपने पात्रों का चित्रण करने में भी उन्होंने इसी सांकेतिकता और अमूर्तता का आश्रय