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आधुनिक कहानी का परिपार्श्व/५५. जो आवश्यक ही नहीं होता, वरन् सृजनशीलता का वह उतना ही अनिवार्य अंग है, जितना कि यथार्थ युग-बोध । बहुधा इन दोनों के अभाव, या असन्तुलन के कारण अच्छी-से-अच्छी रचनाएँ भी निम्नकोटि की हो जाती हैं और गम्भीर-ईमानदार लेखक का उच्चस्तरीय उद्देश्य भी विभ्रांति का शिकार बन जाता है। 'उग्र' के साथ यही हुआ हैं । लेखक का कार्य केवल अवांछनीय तत्वों की ओर संकेत करना मात्र होता है, उसका रसमय चित्रण करना नहीं। संकेतात्मकता में ही उसका सारा कलात्मक कौशल सिमटा रहता है। स्पष्ट है कि 'उग्र' ऐसा करने में असफल रहे हैं, इसीलिए प्रायः उनकी कहानियाँ अतिरंजित प्रतीत होती हैं और अशोभन होने का आभास देती हैं। ___ जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, 'उग्र' ने अपनी कहानियों के कथानक सामाजिक विकृतियों एवं विसंगतियों से ही चुने हैं। उनमें गुंडों, वेश्याओं, कुपथगामी स्त्रियों, विधवाश्रमों, मठों और भिखारियों आदि वर्गों को प्रधानता मिली है। उनकी कहानियाँ या तो घटनाप्रधान हैं या वातावरण-प्रधान । बहुलता घटना-प्रधान कहानियों की है। उन्होंने घटनाएँ यथार्थ जीवन से चुन कर उन्हें बड़ी सजीवता से संगुफित करने की चेष्टा की है। जिन पात्रों को उन्होंने चुना है. वे यथार्थ हैं और सामान्य-मानव जीवन के स्थानापन्न बन गए हैं । उनका यथार्थ चरित्र-चित्रण करने में 'उग्र' ने अदभुत क्षमता प्रदर्शित की है
और उन्हें सजीव कर दिया है। कथानक और पात्रों के व्यक्तित्व में सामंजस्य बनाए रखने की तरफ भी उनका ध्यान बराबर रहा है और इसमें उन्हें बहुत सफलता भी प्राप्त हुई है। उनके पात्र सजीव शक्तस
और आकर्षक होते हैं और कथोपकथन सरल, संक्षिप्त और स्पष्ट । इन कथोपकथनों में उग्रता, आक्रोश और आग है, जिसमें उनकी सुधारवादी भावना ही छिपी हुई होती है । उनकी भाषा हृदय की चुटकी लेने वाली वक्र और स्वच्छन्द होती है। कहानीकार की अपेक्षा 'उग्र' एक भाषाशैलीकार अधिक हैं।