________________
आधुनिक कहानी का परिपार्श्व/५३ आदि गुण इतने ठूस लूंसकर भरे गए हैं कि प्रायः वे देखने में तो अच्छे लगते हैं, पर वस्तुतः वे निर्जीव पात्र हैं और वर्माजी के आदर्श प्रतिष्ठापना की भावना पर बलिदान होने वाली कठपुतलियाँ मात्र ही बनकर रह गए हैं। चरित्र-चित्रण में सारी प्रयत्नशीलता लेखक की ओर से ही लक्षित होती है. इसी लिए यदि उसमें कोई नाटकीयता न दृष्टिगत हो, तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए ।
वास्तव में वर्मा जी की कहानियाँ फ़ॉर्मूला-बद्ध कहानियाँ हैं, जिनमें नैतिकता और मानव-मूल्य तथा मर्यादा का स्वर ऊंचा रखने की सायास चेष्टा की गई है, जिसके मूल में वर्माजी की सुधारवादी भावना ही अधिक क्रियाशील रहती है। उनमें सहजता तो है, प्रवाह भी है, पर यथार्थ प्रवृत्तियाँ बहुधा ठोस आदर्श की तुलना में स्पष्टतया उभर नहीं पातीं, इसीलिए उनका सारा प्रयास यांत्रिक ही बनकर रह जाता । चरित्रप्रधान कहानियों में अवश्य ही कुछ प्रेरणादायक पात्र लेकर उनका स्वाभाविकता के साथ चित्रण करने की वर्मा जी ने चेष्टा की है, जिनमें उन्हें सफलता भी मिली है। पर ये कहानियाँ अधिकांशतः ऐतिहासिक हैं, जिनमें वर्माजी सिद्धहस्त हैं ही, यह बिल्कुल असंदिग्ध बात है।
पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' ने राजनीतिक और सामाजिक उद्देश्य लेकर कहानियाँ लिखी और पुराण-शैली में अनेक सामयिक तत्वों की अभिव्यंजना की। 'दोज़ख की आग', 'चिनगारियाँ', 'बलात्कार', 'सनकी अमीर', 'चाकलेट', 'इन्द्रधनुष', 'निर्लज्ज' आदि उनकी प्रसिद्ध कहानियाँ हैं । उग्रजी की कहानियों में सामाजिक विकृतियों एवं कुरूपताओं के 'विरुद्ध तीव्र असन्तोष एव विद्रोह की ज्वाला है । उन्होंने समाज की नींव में लगे हुए घुन के प्रति तीव्र आक्रोश ही नहीं प्रकट किया है, वरन अपनी कहानियों में उन पर कठोर प्रहार भी किए हैं। वास्तव में “उग्र' ने उस काल में लिखना प्रारम्भ किया था । जब देश स्वाधीन नहीं था और दासता की शृंखलाओं में जकड़ा हुआ था ब्रिटिश साम्राज्यवाद