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४६/आधुनिक कहानी का परिपार्श्व सौन्दर्य बढ़ा देते हैं । शब्द-चयन, वाक्य-विन्यास आदि की दष्टि से उनकी भाषा में सौप्ठव और परिमार्जन है । 'प्रतिध्वनि', 'आकाशदीप', 'आँधी'. 'इन्द्रजाल' और 'छाया' आदि उनकी प्रतिनिधि रचनाएँ हैं।
'प्रसाद' की विचारधारा व्यक्तिवादी है । इस दृष्टि से वे प्रेमचन्द की विचारधारा से भिन्न कहानीकार हैं। उन्होंने जीवन के वीभत्स रूप से अपने को बहुत आहत पाया था और इससे उनकी सौन्दर्य-भावना को बहुत आधात पहुंचा था। प्रेम और सौन्दर्य उनकी मूल भावना थी और जीवन का कठोर यथार्थ इसकी मोहक काल्पनिकता में अन्तविरोध उपस्थित करता था, जिसका समाधान उन्होंने व्यक्तिवादी दृष्टिकोण से करने का प्रयत्न किया। अपनी कहानियों के माध्यम से उन्होंने व्यक्ति तथा समाज की वास्तविक स्थिति स्पप्ट करने की चेष्टा की है। उन्होंने व्यक्ति को महत्व तो दिया है, पर न तो समाज की सत्ता को पूर्णतया अवांछनीय बताया है और न उसकी उपेक्षा की है । दूसरी ओर व्यक्ति को उन्होंने इतनी दूर नहीं पहुंचा दिया है कि उसमें घोर आत्मपरकता की भावना विकसित हो जाय । उन्होंने वस्तुतः व्यक्ति और समाज में यथासम्भव संतुलन बनाए रखने का प्रयत्न किया है, जिसमें उन्हें अनेक अंशों में । सफलता भी प्राप्त हुई है । उन्होंने जीवन के सांस्कृतिक तत्वों की पुन: स्थापना करने की चेष्टा इन कहानियों के माध्यम से की है । यह दूसरी बात थी कि जिस काल का कथानक उन्होंने अपनी कहानियों में उठाया था, क्या उस काल में भारतीय जीवन में कोई सांस्कृतिक तत्व शेष भी था, विशेषतया उस रूप में, जिस रूप में कि 'प्रसाद' ने इन कहानियों में उभारने और चित्रित करने की चेष्टा की है। वे प्रेम के स्वच्छन्द रूप के पक्षपाती थे और इस सम्बन्ध में किसी प्रकार के सामाजिक प्रतिबन्ध के हिमायती नहीं थे। पर स्मरण रहे, यह स्वच्छन्द प्रेम उस प्रकार का नहीं है, जिस रूप में आगे चलकर 'अज्ञेय' या जैनेन्द्रकुमार ने अपनाया। वे स्वच्छन्द प्रेम के पक्षपाती तो अवश्य थे, प्रेम के आदर्श और पवित्रता के प्रति भी अस्थावान् थे । वास्तव में मनुष्य-चरित्र के प्रति उनकी आगाध