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३८ / आधुनिक कहानी का परिपार्श्व
उनके लिए अहंवाद एवं वैयक्तिकता की भावना अर्थहीन थी, क्योंकि वे स्वीकारते थे कि हमारे पथ में अहंवाद अथवा ग्रपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण को प्रधानता देना वह वस्तु है, जो हमें जड़ता, पतन और लापरवाही की ओर ले जाती है और ऐसी कला हमारे लिए न व्यक्ति रूप में उपयोगी है और न समुदाय रूप में । कहना न होगा, उनके लिए 'कला कला के लिए' सिद्धान्त का कोई महत्त्व न था । वे कला को जीवन के लिए मानते थे और उनके पूरे साहित्य की आधारशिला यही दृष्टिकोण है । उनका विचार था कि साहित्य की प्रवृत्ति अहंवाद या व्यक्तिवाद तक परिमित नहीं रहती, बल्कि वह मनोवैज्ञानिक और सामाजिक होता जाता है । वह व्यक्ति को समाज से अलग नहीं देखता, किन्तु उसे समाज के एक अंग रूप में देखता है ।
प्रेमचन्द की कहानियाँ इन्हीं भावनाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं । उन्होंने अपने जीवन में तीन सौ के लगभग ही कहानियाँ लिखीं जिनमें सभी का स्तर बहुत ऊँचा नहीं है । इसका कारण यह है कि वे आर्थिक विषमताओं मे जमने वाले लेखक थे और प्रायः परिस्थितियों की बाध्यता के कारण व्यावसायिक दृष्टिकोण से उन्हें कहानियाँ लिखनी पड़ती थीं । ऐसी कहानियों का स्तर स्वाभाविक रूप से बहुत अच्छा नहीं बन पड़ा है । लेकिन इतना होने के बावजूद अपनी सभी कहानियों में प्रेमचन्द का दृष्टिकोण इसी प्रकार का है, उस पर उन्होंने कोई आघात नहीं आने दिया है । उनकी कहानियों का मुख्य सम्बन्ध मध्य वर्ग से है, जिनमें अनमेल विवाह की समस्या, विधवा विवाह की समस्या, वेश्या वृत्ति एवं
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मद्यपान की समस्या, सम्मिलित कुटुम्ब प्रणाली के विघटन की प्रवृत्ति, पूँजीवादी शोपण एवं बूर्जुना मनोवृत्ति, आर्थिक वैषम्य एवं असमानता, कृषि की समस्या, जमीदारों और कृषकों के सम्बन्ध, ऋरण एवं महाजनी सभ्यता, एकता की भावना का अभाव तथा मूल्य-मर्यादा रहित जीवन की विडम्बनाओं का मूल कारण, राष्ट्रीय जागरण एवं नैतिक उत्थान, सामाजिकता की भावना के ह्रास एवं धर्म की समस्या आदि अनगिनत