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आधुनिक कहानी का परिपार्श्व/३७ नहीं रह जाती और बात अपने आप स्पष्ट हो जाती है। वास्तव में .... सामाजिक दायित्व-बोध के निर्वाह की भावना प्रेमचन्द युग की देन है, न कि 'नई' कहानी की, यह बात स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए । यह बात दूसरी है कि प्रारम्भ में आधुनिक कहानी का मूल उद्देश्य भी यही था, पर धीरे-धीरे उसमें भी दो धाराएँ होती गईं और वह सामाजिक दायित्व-बोध के निर्वाह की भावना से आत्म-परक विश्लेषण की ओर ही मुड़ी, हाँ १९६० के बाद इस प्रवृत्ति में पुनः परिवर्तन के आसार दृष्टिगोचर होते हैं और अनेक लेखकों का प्रयत्न आधुनिक कहानी को फिर से सामाजिक दायित्व-बोध के निर्वाह की भावना से सम्बद्ध कर देने की दिशा में परिलक्षित होता है। इसका विस्तृत विवेचन आगे यथास्थान किया गया है, यहाँ उसे दुहराना अनावश्यक रूप से पिष्टपेषण मात्र होगा। सामाजिक प्रतिबद्धता की भावना से ओतप्रोत इस धारा के लेखकों ने प्रेमचन्द के नेतृत्व में हिन्दी कहानी को एक सुदृढ़ आधार ही नहीं प्रदान किया, वरन् उसे अभिनव रूप प्रदान किया, जो साहित्य की दृष्टि से सर्वथा एक नई बात थी।
जैसा कि मैंने ऊपर कहा है, प्रेमचन्द इस युग के आधार-स्तम्भ थे। इस युग की सारी उपलब्धियाँ एवं सम्भावनाएँ उनमें सन्नहित थीं। वे एक प्रकार से साहित्य के क्षेत्र में समाज के प्रवक्ता थे। उन्होंने -साहित्य को जीवन की व्याख्या एवं आलोचना के रूप में ही स्वीकारा था और उसका मानदण्ड उपयोगितावाद निश्चित किया था । व्यापक सामाजिक कल्याण की भावना से ओतप्रोत और विराट मानवतावादी दृष्टिकोण से पूरित प्रेमचन्द ने व्यक्ति को एक सामाजिक इकाई के रूप में मान्यता दी थी और यह मानकर चले थे कि व्यक्ति की सारी समस्याएँ, उसका व्यक्तित्व, अहं, मूल भावधारा एवं आत्म-चेतना, -सभी कुछ सामाजिक परिधि में ही बनती-बिगड़ती है और वह समाज के प्रति महती भावना लिए उत्तरदायी होता है । इसलिए उनके लिए साहित्य की संज्ञा समाज-सापेक्ष्य मात्र थी, उससे हटकर कुछ नहीं ।
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