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३६ / आधुनिक कहानी का परिपार्श्व
लोगों के जीवन की विभिन्न समस्याओं का यथार्थ के व्यापक आयामों का संस्पर्श देते हुए पूर्ण तटस्थता एवं निस्संगता से चित्रण करे और उसे सत्य की वाणी दे । यही उसका वास्तविक लेखकीय धर्म भी होता है । इस दायित्व बोध का निर्वाह न कर सकने की असमर्थता ही किसी जीवन्त साहित्य को शाश्वत गुरणों से वञ्चित करती है और उसे मृत साहित्य बना देती है | इस प्रकार के साहित्य की उपयोगिता शून्य होती है और उपादेयता के गुणों से वांचित साहित्य कभी भी समाज को या युग को कोई दिशा देने अथवा पथ स्पष्ट करने में समर्थ नहीं होता साहित्य का ध्येयोन्मुख होना ही उसकी सर्वप्रमुख विशेषता होती है, यह निर्विवाद है ।
इसे इस रूप में भी कहा जा सकता है कि व्यक्ति को समाज से अलग करके नहीं देखा जा सकता । व्यक्ति की यदि अपनी सत्ता होती है, तो उससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि वह एक सामाजिक इकाई है, जहाँ वह साँस लेता है, प्राण पाता है और जीवन ग्रहण करता है । जब व्यक्ति की महिमा का बखान करना ही साहित्य का एकमात्र लक्ष्य हो जाता है और समाज की सत्ता उसके लिए गौण हो जाती है, तो वह साहित्य मूल्य-मर्यादा रहित हो जाता है । यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि आज 'नई' कहानी भी इस बात का दावा करती है कि वह दायित्व बोध और सामाजिक यथार्थ की भावना से पूरित है और इस प्रकार वह एक 'नए' युग का सूत्रपात करती है । इस सम्बन्ध में मनोरंजक बात यह है कि इस प्रकार का दावा करने वाले कदाचित् कहानियाँ भूल जाते हैं । 'जख्म' ( मोहन राकेश), 'एक कटी हुई कहानी ' ( राजेन्द्र यादव ), 'ऊपर उठता हुआ मकान' ( कमलेश्वर ), 'दहलीज़ ( निर्मल वर्मा ), 'अनबीता व्यतीत' (नरेश मेहता), 'कई कुहरे' (सुरेश सिनहा ) की तुलना में 'कफन' (प्रेमचन्द), 'निंदिया लागी ' ( भगवती प्रसाद वाजपेयी), 'ग़दल' ( रांगेय राघव ) तथा 'फलित ज्योतिष' ( यशपाल ) आदि कहानियों को रखने पर कुछ भी कहने की आवश्यकता