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आधुनिक कहानी का परिपार्श्व / ३३:
का परिणाम था कि मध्ययुगीन ईश्वर ने मानवता का रूप धारण कर लिया । बहुत दिनों बाद उन्नीसवीं शताब्दी के भारतवासी ने अपने और अपने चारों ओर के जीवन में दिलचस्पी ली - आध्यात्मिक जीवन के साथ-साथ मनुष्य के भौतिक जीवन को भी समृद्ध बनाने की चेष्टा की । उसने वह दृष्टिकोण ग्रहण किया जो गीता के कृष्ण का था । नवीन युग के धर्म ने जीवन के प्रति दार्शनिक दृष्टिकोण को एक नया पहलू प्रदान किया । इस नए पहलू में मध्ययुगीन रहस्यात्मकता और अन्तिम 'सत्य' की कोरी खोज नहीं थी । मानवता, समाज, देश आदि का सुख भी उन्नीसवीं शताब्दी का प्रधान लक्ष्य बना । मानवता की परिधि में व्यक्ति - स्वातंत्र्य और न्याय तथा दण्ड के सम्बन्ध में नवीन भावना के स्वर से उन्नीसवीं शताब्दी की विचारधारा प्रोतप्रोत है । उसी समय सामाजिक न्याय की भावना उत्पन्न हुई— जो पिछले सामन्तवादी युग में नहीं थी । हिन्दी साहित्य स्वयं इसका प्रमाण है । उन्नीसवीं शताब्दी के कथाकार पलायनवादी न थे, वे जीवन से जूझना जानते थे । वे भारतीय जीवन के भीतरी और बाहरी दोनों रूपों को पहचान कर उसमें नया रंग भरना चाहते थे । इतिहास ने उनमें प्रदभ्य जिजीविषा भरी और मनुष्य की निरन्तर प्रगति में उन्हें अगाध विश्वास प्राप्त हुआ । 'कामा-यनी' के 'त्रिपुर-दाह' की उन्होंने उसी समय कल्पना कर ली थी । भूत वर्तमान और भविष्य को अपनी भुजाओं में समेट कर वे जीना चाहते थे, जीवन के लिए वे मर मिटना चाहते थे और वह भी समाज कल्याण की दृष्टि से । परिवर्तनशीलता उनके लिए मृत्यु थी । उनके मन में असन्तोष था, क्योंकि वे कर्मठता द्वारा भारतीय जीवन को नवीन रूप प्रदान करना चाहते थे । उनका आदर्श, उनका त्याग, उनका संयम और उनकी साधना व्यर्थ सिद्ध नहीं हुई । हिन्दी कथा साहित्य और बीसवीं शताब्दी का भारतीय जीवन इसका ज्वलन्त प्रमाण है ।
हिन्दी कथा साहित्य का यही परिवेश है, जिसमें उसका अविर्भाव हुआ और आज तक उसका इस रूप में विस्तार हुआ है । इस काल में