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आधुनिक कहानी का परिपार्श्व/३१ डाला था । अच्छा यह हुआ कि उसकी नींव दृढ़ बनी हुई थी। भारतेन्दुकालीन हिन्दी मनीषी एक बिल्कुल ही नया भवन खड़ा करने के स्थान पर उसी प्राचीन दृढ़ नींव पर नए ज्ञान और अनुभव के प्रकाश में एक ऐसे भव्य प्रासाद का निर्माण करना चाहते थे जिसके साए में रहकर अपार भारतीय जनसमूहं सुख और शान्तिपूर्वक धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-जीवन के ये चारों फल प्राप्त कर सकता था। वे युगधर्म में पोषित थे। उनकी वाणी में नव भारत का स्वर प्रतिध्वनित था । वे भारतीय संस्कृति के प्रधान अंग, पुर्नजन्म, के सिद्धान्त से परिचित थे। उन्होंने अपने नवीनतम ज्ञान और अनुभव का सम्बल लेकर भारतीय मंगल-क्रांति के लिए शंख-ध्वनि की। ___इस शताब्दी के जीवन से सम्बन्धित जिन विविध पक्षों को ऊपर विस्तृत विवेचन किया गया है, उनसे यह साष्टतः ज्ञात हो जाता है कि ब्रिटिश उपनिवेशवादी और साम्राज्यवादी राजनीतिक तथा आर्थिक नीतियों, ईसाई धर्म प्रचारकों, प्रशासकीय परिवर्तनों, वैज्ञानिक आविष्कारों और नवीन शिक्षा के फलस्वरूप जीवन का पिछला गतिरोध टूट गया था और उसके अच्छे-बुरे दोनों ही परिणाम दृष्टिगोचर हो रहे थे । जीवन और साहित्य के इस अभूतपूर्व परिवर्तन को कुछ लोग प्रतिक्रियावाद कहते हैं, कुछ क्रान्ति और कुछ कोरा सुधारवाद। वस्तुतः इनमें से किसी भी शब्द का प्रयोग उपयुक्त प्रतीत नहीं होता । उसे यदि हम केवल 'पूनरुत्थान' शब्द से अभिहित करें तो समीचीन होगा। यही कारण है कि उस समय हमें भारतीय इतिहास और सांस्कृतिक परम्पराओं के प्रति नितान्त अलगाव नहीं पाया जाता। प्राचीन और नवीन का एक अद्भुत समन्वय तत्कालीन जीवन का सोरभूत अंश है। प्राचीन और मध्ययुगीन भारत में व्यक्ति समुदाय का एक अंग मात्र था और जब तक वह समुदाय की सुचारु व्यवस्था में हस्तक्षेप न करता था, तब तक वह सब कुछ करने के लिए स्वतंत्र था-विशेषतः धार्मिक और आध्यात्मिक विषयों में तो उसे पूर्ण स्वतंत्रता थी। उन्नीसवीं शताब्दी में व्यक्ति के