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२८/प्रावुनिक कहानी का परिपार्श्व वर्तमान काल में पश्चिमी सभ्यता के साथ सम्पर्क स्थापित होने से विविध सुधारवादी तथा अन्य आंदोलनों और नई शक्तियों की वृद्धि से अभूतपूर्व आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक एवं सामाजिक परिवर्तन हुए, जिनके फलस्वरूप हिन्दी साहित्य और भाषा की गतिविधि भी परम्परा छोड़कर नव-दिशोन्मुख हुई । स्थल रूप से समाज चार भागों में बँटा हुआ थाएक राजा-महाराजाओं का वर्ग; दूसरा ज़मींदारों का वर्ग; तीसरा नव शिक्षितों एवं व्यवसायियों का वर्ग; और चौथा किसानों, मज़दूरों, कारीगरों आदि का निम्न वर्ग । चौथा वर्ग संख्या में सबसे अधिक था । नवीन परिवर्तनों से वैसे सभी वर्ग प्रभावित हुए, किन्तु तीसरे और चौथे वर्ग निश्चित रूप से किसी-न-किसी रूप में प्रभावित हुए । नव-शिक्षित होने कारण तीसरे वर्ग ने सबसे अधिक क्रियाशीलता प्रकट की । पूर्व और पश्चिम के सम्पर्क से देश में नव-चेतना उत्पन्न हुई, समाज अपनी बिखरी शक्ति बटोरकर गतिशील हुआ । नवयुग के जन्म के साथ विचार-स्वातंत्र्य का जन्म हुआ, साहित्य में गद्य की वृद्धि हुई और कथा साहित्य को दिशा मिली। सामंजस्य स्थापित करने से पूर्व कथाकारों ने वैज्ञानिक तथा अन्य नई-नई बातों को कुतूहल और उत्सुकतापूर्ण दृष्टि से देखकर उनका . वर्णन किया। उन्होंने नवीन भावों और विचारों को सन्देह की दृष्टि से भी देखा । पूरे तौर से सत्य रूप में तो वे अब ग्रहण किए गए हैं। उस समय कदाचित् यही स्वाभाविक था। आलोच्य काल के हिन्दी कथा साहित्य का अध्ययन करने पर यह तथ्य किसी से छिपा नहीं रह सकता कि यद्यपि उसमें बहुत बड़ी सीमा तक पुरातनत्व बना हुआ था, तो भी तत्कालीन कथाकारों में लेखकपन होने के साथ-साथ समाज-सुधारक और धर्मोपदेशक होने की भी प्रवृत्ति थी। उन्होंने अपनी रचनाओं में नव-भारत की राजनीतिक और आर्थिक महत्वाकांक्षाएँ प्रकट कर अपने चारों ओर के धर्म और समाज की पतित अवस्था पर क्षोभ प्रदर्शित करते हुए भविष्य के उन्नत और प्रशस्त जीवन की ओर इंगित किया है । अंगरेजी साहित्य ने उनके भावों और विचारों को प्रभावित किया,