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२० अाधुनिक कहानी का परपार्श्व अराजकता का जन्म हुआ; समाज और धर्म में एक भारी संकट उपस्थित हो गया। अँगरेज़ी-शिक्षित अल्पसंख्यक लोगों के विचारों में तो क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए; वे पाश्चात्ज सभ्यता व चकाचौंध की ओर आकृष्ट हुए। लेकिन साधारण जनता प्राचीन क्रम अपनाए रही । जीवन के नवीन और प्राचीन क्रम में अनेक परस्पर विरोधी बातें थीं। पश्चिमी सभ्यता द्वारा प्रदत्त जीवन-क्रम देश के परम्परागत एवं स्वाभाविक जीवन-क्रम के साथ मेल न खा सका । होना तो यह चाहिए था कि पश्चिमी विचारों से प्रभावित होकर नव-शिक्षित भारतीय सामाजिक तथा धार्मिक जीवन-क्रम के प्रधान तत्त्वों का फिर से मूल्यांकन कर साधारण जनता का उचित रूप से मार्ग-प्रदर्शन करते । इसके स्थान पर उन्होंने जो कुछ प्राचीन था, उसका घोर खण्डन तो किया, किन्तु देश के सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन के अनुरूप कोई नवीन व्यवस्था न दी। परिणाम यह हुआ कि देश का साधारण जीवन जहाँ था, वहीं पड़ा रहा और वे स्वयं उसमें न खप सके। वे अपने और देश के स्वाभाविक जीवन में कोई सन्तुलन स्थापित न कर पाए। यदि पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव साधारण जनता तक पहुँच जाता, तो सम्भवतः परिस्थिति दूसरी होती। इसके अतिरिक्त स्वयं नवशिक्षितों के जीवन में एक विषमता उत्पन्न हो गई थी जिससे वे कहीं के न रह गए। नवशिक्षितों का पुरातनत्व से लिप्त घरेलू जीवन उनकी नवीन शिक्षा से भिन्न था। वे अध्ययन तो करते थे मिल्टन, मिल आदि के विचारों का, किन्तु घरों में पंडों-पुरोहितों के विचारों और मूर्ति-पूजा का प्रचार था । बौद्धिक दृष्टि से हिन्दू धर्म के प्रचलित रूप में विश्वास न रह जाने पर भी उनका सामाजिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक जीवन उसी से संचालित होता था। इस विषमता तथा अराजकता का उत्तरदायित्व सरकारी शिक्षा संस्थाओं पर था। लेकिन सरकार उसे दूर करने में असमर्थ थी। उसने तो केवल सती-प्रथा, बाल-हत्या, नर-बलि जैसी कुछ क्रूर प्रथाओं के सम्बन्ध में ही हस्तक्षेप किया था । अन्यथा वह सामाजिक तथा धार्मिक