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कहानीकार : विचारधारा एवं उपलब्धियाँ
पिछले अध्यायों में स्थान-स्थान पर विभिन्न प्रसंगों में प्राज के नए कहानीकारों और उनकी रचनाओं के सम्बन्ध में संकेत दिए गए हैं। यहाँ पिछले पन्द्रह वर्षों में उभरे कुछ प्रमुख कहानीकारों की चर्चा की जा रही है जिससे आज की कहानी और सर्जनशीलता का पूर्ण स्पष्टीकरण हो सके। पीछे कहानीकारों के दो वर्गीकरण बनाए गए थे—एक वर्ग उन कहानीकारों का जिनकी मूल भावधारा समष्टिगत चिन्तन पर आधारित है, जो प्रगतिशील हैं और सामाजिक यथार्थवाद के पोषक हैं । दूसरा वर्ग व्यष्टि - चिन्तन पर आधारित कहानीकारों का है जिन्होंने सामाजिक यथार्थ को लेकर कई सुन्दर रचनाएँ की हैं, पर जिनका मुख्य झुकाव व्यक्ति और उसकी समस्याओं की ओर अधिक रहा है, इसलिए अधिकांशतः वे आत्मपरक हो गए हैं । निम्नोल्लिखित कहानीकार इन्हीं दो वर्गों में से किसी एक के अन्तर्गत आते हैं ।
नरेश मेहता ( १५ फरवरी, १६२१ ) कहानी के क्षेत्र में अपना कवि-व्यक्तित्व लेकर आए । कवि के रूप में वे अपना एक महत्वपूर्ण स्थान पहले ही बना चुके थे, पर 'तथापि' के प्रकाशन के पश्चात् उन्होंने कहानीकारों की प्रथम पंक्ति में अपना स्थान निश्चित कर लिया । कहानी के जिस नएपन की बार-बार चर्चा की जाती है कदाचित् नरेश मेहता की कहानियां पहली बार उसका वास्तविक प्रतिनिधित्व करने में सफल हुई हैं। कहानी को सूक्ष्म से सूक्ष्मतर बनाने, संश्लिष्ट चरित्रों के विधान एवं कथानक के ह्रास तथा कथा - सूत्रों की विशृंखलता, अमूर्त प्रतीक - विधान एवं व्यंजना-रूपों का प्राधिक्य करने