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१०६ / आधुनिक कहानी का परिपार्श्व
रहता है, और ऐसे-ऐसे सत्यों खोज निकालता है. जो चौंका देने वाले भले ही हों, किन्तु जिनका कोई स्थायी महत्व नहीं होता । तब उनके अपने जीवन के सारे 'मूल्य' उन्हें सामाजिक मूल्य प्रतीत होने लगते हैं और अपना यथार्थ ही व्यापक यथार्थ । यह विडम्बना नहीं तो और क्या है |
वास्तव में समाज में सारी प्राधुनिकता के बावजूद सारे मूल्य सेक्स, कुंठा एवं निराशा से ही सम्बन्धित नहीं होते । प्रत्येक चीज़ की अपनी एक सीमा होती है । लेखक का काम संकेत देना होता है, किसी अवांछनीय स्थिति का रसमय या विस्तार से चित्रण करना नहीं । यों तो जिन स्थितियों को हम 'अवांछनीय' कहते हैं, वे भी मानव जीवन से से ही सम्बन्धित होती हैं; और जब उनका भोक्ता स्वयं मनुष्य ही होता है, तो प्रश्न उठाया जा सकता है कि मूल्य-मर्यादा की बात क्यों उठाई जाए या श्लीलता - अश्लीलता की समस्या क्यों उठाई जाए ? उत्तर सीधा हो सकता है कि कुछ भी नहीं । स्त्री-पुरुष के मध्य, पुरुष और पुरुष के मध्य तथा स्त्री-स्त्री के मध्य वैसे तो कुछ भी रहस्यमय नहीं और फिर साहित्य में ही उन पर क्यों प्रतिबंध लगाया जाय-यह बात अपने आप में बड़ी मनोरंजक है । समाज, सभ्यता एवं संस्कृति ने कुछ आचारसंहिताएँ बनाई हैं जिनका मनुष्य जाति पालन करती है, जिनसे साहित्य अछूता नहीं रह सकता। कलाकार का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि वह उन्हीं स्थितियों को उजागर करने का प्रयत्न करे, जो समाज के व्यापक परिवेश में उपयोगी सिद्ध हों और मर्यादा के नए प्रतिमान स्थापित करे। नए उभरने वाले मूल्यों को उभारना और उनके यथार्थ परिवेश में उन्हें चित्रित करना कलाकार का उद्देश्य होता है । पर यह भी अस्वीकारा नहीं जा सकता कि उसके पास एक सूक्ष्म चयन की अन्तर्दृष्टि होती है जिसे सशक्त और सक्षम बनाना भी उसका उद्देश्य होता है । बिना इसके तो साहित्य अराजकता का अड्डा हो जाएगा और साहित्य की हर विधा में अनाचार-ही-अनाचार दृष्टिगत होने लगेगा, जिसमें