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सामने उन्हें दीखेंगे। जो खुद भटा खाये, वह दूसरों को भटा के त्याग का क्या उपदेश देगा? ___एक कोई वक्ता सभा में भटा के अवगुण बता रहा था। भटा में सबसे बड़ा अवगुण यह है कि उसमें इस तरह की पर्त होती है कि दो-दो अंगुल के भटे के टुकड़े भी बना लें तो भी कीड़ा छुपा हुआ रह सकता है। उसमें कीड़ा है कि नहीं, यह आप जान नहीं सकते। ऐसे भटे के त्याग का उपदेश कर रहे थे। बाद में घर पहुँचे। स्त्री ने भी सुन रखा था कि भटा में बड़े अवगुण बताये हैं हमारे पतिजी ने व इसके त्याग का उपदेश भी दिया है। सो जो भटा बनाये रक्खे थे पहिले के, उठाकर नाली के पास फेंक दिये, क्योंकि बेकार हैं। अब भोजन करने आये भाईजी, तो कहाअरे! भटा नहीं बनाये क्या? स्त्री बोली कि आपने ही उपदेश किया था, सो हमने जल्दी आकर उन भटों को फेंक दिया। “अरी! बटोर ला ऊपर-ऊपर से।" यह क्या ? अरे! वह तो दूसरों के लिए कह रहे थे।
हम अन्याय से चलें, अशुद्ध व्यवहार करें, दूसरों पर दया न रखें, अनेक प्रकार के दगाबाजी, छल के काम करें, इस तरह के हम काम करने वाले तो लोक की निगाह में हैं, पर हम धर्म के नाम पर पैसा खर्च कर दें, तो इससे उनके चित्त पर सन्मार्ग की छाप नहीं पड़ सकती। न भी खर्च कर सकें धर्मसमारोह में अधिक, तो न सही, परन्तु स्वयं हम खुद भले आचरण से रहते हों तो सन्मार्ग की प्रभावना बराबर चलेगी।
जो मनुष्य अपना आचरण शुद्ध बनाकर अपना उपकार करता है, उससे दूसरों का उपकार स्वयमेव होता रहता है। वास्तविक प्रभाविक प्रभावना तो यह है कि अपने रत्नत्रय तेज के द्वारा भी सन्मार्ग पर चलें
और फिर विधान-पूजन समारोह जलसों में सबकुछ करें तो वह भी प्रभावना का अंग बनेगा।
यह मनुष्यजन्म, इंद्रियों की पूर्णता, ज्ञानशक्ति, परमागम की शरण,
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