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शोभित हैं, अतः आप 'वृषभ' हैं । जगत के सम्पूर्ण प्राणियों में गुणों के द्वारा आप बड़े हैं, अतः आप 'जगज्ज्येष्ठ' हैं। क अर्थात् सुख, उसके द्वारा आप सभी जीवों का पालन करते हो, अतः आप 'कपाली' हो । केवलज्ञान द्वारा आप समस्त लोक–अलोक में व्याप्त हो रहे हो, अतः आप 'विष्णु' हो । जन्म–जरा मरणरूप त्रिपुर का आपने अंत कर दिया है, अतः आप 'त्रिपुरांतक' हो। इस प्रकार से इंद्र ने आपका एक हजार आठ नामों द्वारा स्तवन किया है। गुणों की अपेक्षा आपके अनन्त नाम हैं। इस प्रकार भावों में चौबीस तीर्थंकरों के गुणों का चिन्तवन करके स्तवन करना, वह स्तवन नाम का आवश्यक है | 2 |
वंदना : चौबीस तीर्थंकरों में से किसी एक तीर्थंकर की, तथा अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु में से किसी एक को मुख्य कर उनकी स्तुति करना, वह वंदना आवश्यक है | 3 |
प्रतिक्रमण : सम्पूर्ण दिन में प्रमाद के वश होकर, कषायों के वश होकर, विषयों में रागी -द्वेषी होकर किसी जीव का घात किया हो, निरर्थक प्रवर्तन किया हो, सदोष भोजन किया हो, किसी जीव के प्राणों को कष्ट पहुँचाया हो, कर्कश-कठोर - मिथ्या वचन कहा हो, किसी की निंदा - बदनामी की हो, अपनी प्रशंसा की हो, स्त्री कथा, चौर कथा, भोजन कथा, राज्य कथा की हो, अदत्त धन ग्रहण किया हो, पर के धन में लालसा की होवे सब मिथ्या होवें, पंचपरमेष्ठी के प्रसाद से हमारे पापरूप परिणाम नहीं होवें। ऐसे भावों की शुद्धता के लिये कायोत्सर्ग करके पंचनमस्कार के नौ जाप करना चाहिए ।
इस प्रकार सम्पूर्ण दिन की प्रवृत्ति को संध्याकाल चिंतवन करके पाप परिणामों की निंदा करना, वह दैवसिक प्रतिक्रमण है। रात्रिसंबंधी पापों को दूर करने के लिये प्रभात में प्रतिक्रमण करना, वह रात्रिक प्रतिक्रमण है। मार्ग में चलने में दोष लग गया हो, उसकी शुद्धि के लिये जो प्रतिक्रमण
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