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सामायिक : देह से भिन्न, ज्ञानमय ही जिसकी देह है, ऐसे परमात्म स्वरूप, कर्मरहित, चैतन्यमात्र शुद्ध जीव का एकाग्रतापूर्वक ध्यान करने वाले मुनि सर्वोत्कृष्ट निर्वाण को प्राप्त होते हैं। निर्विकल्प शुद्ध-आत्मा के गुणों में जिनका मन स्थिर नहीं होता है, ऐसे तपस्वी मुनि छ: आवश्यक क्रियाओं को अच्छी तरह अंगीकार करें तथा आते हुए अशुभ कर्मों के आस्रव को रोकें, टालें।
प्रथम तो सुन्दर-असुन्दर वस्तु में, तथा शुभ-अशुभ कर्म के उदय में राग-द्वेष नहीं करो। आहार-वसतिकादि के लाभ-अलाभ में समभाव करो। स्तुति-निंदा में, आदर-अनादर में, पाषाण-रत्न में, जीवन-मरण, शत्रु-मित्र में, सुख-दुःख में, श्मशान महल में, राग-द्वेष रहित परिणाम समभाव है। जो साम्यभाव के धारक हैं, वे बाह्य पुद्गलों को अचेतन व अपने से भिन्न जानकर उनमें रागद्वेष करना छोड़ देते हैं तथा अपने को शुद्ध, ज्ञाता–दृष्टारूप अनुभव करते हुए राग-द्वेषादि विकार रहित रहते हैं उनके साम्यभाव होता है वही सामायिक है।1।
स्तवन : भगवान् जिनेन्द्र का अनेक नामों के द्वारा स्तवन करना, वह स्तवन नाम का आवश्यक है। आपने कर्मरूप शत्रुओं को जीता है अतः आपका नाम 'जिन' है। आपको किसी ने बनाया नहीं है तथा आप स्वयं ही अपने स्वरूप में रहते हैं, अतः "स्वयंभू' हैं। आप केवलज्ञानरूप नेत्र द्वारा त्रिकालवर्ती पदार्थों को जानते हो, अतः आप 'त्रिलोचन' हो। आपने मोहरूप अन्धासुर को मार दिया है, अतः आप 'अन्धाकान्तक' हो। आपने आठ कर्मों में से चार घातिया कर्मोंरूप आधे बैरियों का नाश करके ही अद्वितीय ईश्वरपना पाया है, अतः आप 'अर्द्धनारीश्वर' हैं। आप शिव पद अर्थात् निर्वाण पद में विराजमान हैं, अतः आप 'शिव' हैं। पापरूप बैरी का आप संहार करते हैं, अतः आप 'शंकर' हो। शं अर्थात् परम आनन्दरूप सुख, उसमें आप रहते हैं, अतः आप 'शंभू' है। वृष अर्थात धर्म, उससे आप
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