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इसलिये यह मुनिपना, व्रत धारण करना, नग्न होकर क्षुधादि परीषह सहने की विडंबना द्वारा क्या साध्य है? संवर - निर्जरा तो कषायों को जीतने से होती है। जब माया कषाय का ही त्याग नहीं किया तो व्रत, संयम, मौन ध रण करना व्यर्थ है । मायाचारी का नग्न रहना और परीषह सहना व्यर्थ है । तिर्यंच भी परिग्रहरहित नग्न रहते हैं । अतः तुम दूरभव्य हो, हमारे वंदने योग्य नहीं हो। तुम्हारे भाव तो ऐसे हैं कि यदि हमारा दोष प्रकट हो जायेगा तो हम निंद्य हो जायेंगे, हमारा उच्चपना घट जायेगा । किन्तु तुम्हारा ऐसा मानना बंध का कारण है। श्रमण तो स्तुति व निंदा में समान परिणाम रखनेवाले होते हैं।' इस प्रकार गुरु कठोर वचन कहकर भी मायाचार आदि का अभाव कराते हैं ।
अपरिस्रावीः शिष्य जिस दोष की गुरु से आलोचना करता है, गुरु उस दोष को किसी दूसरे को नहीं बतलाते हैं । जैसे तपाये हुए लोहे के द्वारा पिया हुआ जल बाहर नहीं निकलता है, उसी प्रकार शिष्य से सुने हुए दोष को आचार्य किसी दूसरे को नहीं बताते हैं - वह अपरिस्रावी गुण है । शिष्य तो गुरु का विश्वास करके कहता है, किन्तु यदि गुरु शिष्य का दोष प्रकट कर देता है, दूसरों को बता देता है, तो वह गुरु नहीं है, विश्वासघाती है।
कोई शिष्य अपने दोष को गुरु के द्वारा प्रकट किया गया जानकर दुःखी होकर आत्मघात कर लेता है, कोई क्रोध में आकर रत्नत्रय का त्याग कर देता है, कोई गुरु की दुष्टता जानकर अन्य संघ में चला जाता है। 'जैसे मेरी अवज्ञा की है, वैसे ही तुम्हारी भी अवज्ञा करूँगा - इस प्रकार समस्त संघ में प्रकट घोषणा कर देता है, जिससे समस्त संघ का आचार्य पर से विश्वास उठ जाता है, आचार्य सभी के त्याज्य हो जाता है, इत्यादि बहुत दोष आते हैं । अतः अपरिस्रावी गुण का धारक ही आचार्य होना चाहिये ।
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