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अवपीड़क : कोई मुनि रत्नत्रय धारण करके भी लज्जा से, भय से, अभिमान, गौरव आदि से अपनी शुद्ध यथावत् आलोचना (भूल स्वीकार करना) नहीं करता है तो आचार्य उसे स्नेह से भरी, कानों को मीठी तथा हृदय में प्रवेश करने वाली शिक्षा देते हैं- हे मुने! बहुत दुर्लभ रत्नत्रय के लाभ को तुम मायाचारी द्वारा नष्ट नहीं करो। माता-पिता के समान अपने गुरुओं के पास अपना दोष प्रकट करने में क्या शर्म है? वात्सल्य के धारी गुरु भी अपने शिष्य के दोष प्रकट करके शिष्य का तथा धर्म का अपवाद नहीं कराते हैं। अतः शल्य दूर करके आलोचना करो। जिस प्रकार रत्नत्रय की शुद्धता व तपश्चरण का निर्वाह होगा, उसी प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार तुम्हें प्रायश्चित दिया जायेगा। अतः भय छोड़कर निर्दोष आलोचना करो।
जो ऐसे स्नेहरूप वचनों द्वारा भी माया शल्य नहीं छोड़ता है, तो तेज के धारी आचार्य जबरदस्ती से शिष्य की शल्य को निकालते हैं। जिस समय आचार्य शिष्य से पछते हैं कि-'हे मने| क्या यह दोष ऐसा ही है. सत्य कहो?' तब उनके तेज व तप के प्रभाव से, जैसे सिंह को देखते ही स्यार खाते हुए मांस को तत्काल उगल देता है, तथा जैसे महान प्रचण्ड तेजस्वी राजा अपराधी से पूछता है तब उससे तत्काल सत्य कहते ही बनता है, उसी प्रकार शिष्य भी माया शल्य को निकाल देता है। ___ यदि शिष्य सत्य नहीं बोलकर अपना माचायार नहीं छोड़ता है, तो गुरु तिरस्कार के वचन भी कहते हैं-'हे मुने! हमारे संघ से निकल जाओ, हमसे तुम्हारा क्या प्रायोजन है? जो अपने शरीर का मैल धोना चाहेगा, वह निर्मल जल से भरे सरोवर को प्राप्त करेगा और जो अपने महान रोग को दूर करना चाहेगा, वह प्रवीण वैद्य को प्राप्त करेगा। उसी प्रकार जो रत्नत्रयरूप परमधर्म का अतिचार दूर करके उज्ज्वल करना चाहेगा, वह गुरु का आश्रय लेगा। तुम्हें रत्नत्रय की शुद्धता करने में आदर नहीं है,
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