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देखकर संघ के सभी मुनि वैयावृत्य करने में सावधान हो जाते हैं तथा विचार करते हैं
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अहो ! धन्य हैं ये गुरु भगवान्, परमेष्ठी, करुणानिधान, जिनके ार्मात्मा में ऐसा वात्सल्य है । हम महानिंद्य हैं, आलसी हो रहे हैं, हमारे होते हुए भी गुरु सेवा करें - यह हमारा प्रमादीपना धिक्कारने योग्य है। ऐसा विचार कर समस्त संघ वैयावृत्य करने में उद्यमी हो जाता है।
यदि आचार्य स्वयं प्रमादी हों, तो सकलसंघ वात्सल्य रहित हो जाये । इसलिये आचार्य का कर्तृत्व गुण मुख्य है । समस्त संघ की वैयावृत्ति करने की जिसमें क्षमता हो, वह आचार्य होता है । कोई हीनाचारी हो तो उसे शुद्ध आचार ग्रहण कराते हैं। कोई मंद ज्ञानी हो तो उसे समझाकर चारित्र में लगाते हैं। किसी को प्रायश्चित देकर शुद्ध करते हैं, किसी को धर्मोपदेश देकर दृढ़ता कराते हैं । धन्य हैं आचार्य ! जिनको उनकी शरण प्राप्त हो गई, उनको मोक्षमार्ग में लगाकर उद्धार कर देते हैं। इसलिए आचार्य का प्रकर्त्तागुण प्रधान है।
अपायोपाय— विदर्शी : अपायोपाय - विदर्शी नाम का आचार्य का पाँचवाँ गुण है। कोई साधु क्षुधा, तृषा, रोग, वेदना से क्लेशित परिणामरूप हो जाये, तीव्र राग-द्वेष रूप हो जाये, लज्जा से भय से यथावत् आलोचना नहीं करे, रत्नत्रय में उत्साहरहित हो जावे, धर्म में शिथिल हो जाये, उसे अपाय अर्थात् रत्नत्रय का नाश, उपाय अर्थात् रत्नत्रय की रक्षा का प्रकट ऐसा गुण-दोष दिखाये कि वह रत्नत्रय के नाश होने से काँपने लगे तथा रत्नत्रय के नाश से अपना नाश व नरकादि कुगति में पतन साक्षात् दिखाई देने लगे। रत्नत्रय की रक्षा से संसार से ऊपर होकर अनन्तसुख की प्राप्ति उपदेश द्वारा साक्षात् दिखला दें, ऐसा उपदेश देने की सामर्थ्य जिसमें हो, वह अपायोपाय - विदर्शी गुण का धारक आचार्य होता है।
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