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निर्यापकः आचार्य को निर्यापक गुणधारी होना चाहिये। जैसे खेवटिया समस्त बाधाओं को टालकर नाव को पार उतार ले जाता है, उसी प्रकार आचार्य भी शिष्यों को अनेक विघ्नों से बचाकर संसारसमुद्र से पार करा देता है।
इस प्रकार आचारवान्, आधारवान, व्यवहारवान्, प्रकर्त्ता, अपायोपायविदर्शी, अवपीड़क, अपरिस्रावी, निर्यापक- आचार्य के इन आठ गुणों को धारण करनेवालों के गुणों में अनुराग करना, वह 'आचार्य भक्ति' है । ऐसे आचार्यों के गुणों को स्मरण करके आचार्यों का स्तवन वंदन करके अर्घ उतारण जो पुरुष करता है, वह पापरूप संसार की परिपाटी को नष्ट करके अक्षय सुख को प्राप्त करता है ।
आचार्य का पद बड़ी जिम्मेदारी का पद है। वे शिष्य की योग्यता देखकर उतनी ही देशना देते हैं जितनी कि वह ग्रहण कर सकता है। घर में माँ ने लड्डू बनाये। बच्चा कहता है कि मैं तो पाँच लड्डू लूँगा। माँ कहती है कि लड्डू तो तेरे लिये ही बनाये हैं, पर तुझे एक लड्डू मिलेगा, क्योंकि तू पाँच लड्डू पचा नहीं सकता। बच्चा कहता है- तुम तो पाँच-पाँच खाती हो, मुझे क्यों नहीं देती? क्या मेरे पेट नहीं है? माँ कहती है-पेट तो है, पर मेरे - जैसा बड़ा नहीं है । तात्पर्य यह है कि माँ बच्चे को उसके ग्रहण योग्य ही लड्डू देती है, अधिक नहीं ।
मोक्षमार्ग में आचार्य का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि सिद्ध भगवान् तो बोलते नहीं हैं । साक्षात् अरहन्त भगवान् जो बोलते हैं, उनका इस समय अभाव है। यहाँ पर स्थापना - निक्षेप से जो अरहन्त भगवान् हैं, वे बोलते नहीं हैं। अतः मोक्षमार्ग में गुरु ही सहायक सिद्ध होते हैं । मार्ग पर चलते समय यदि कोई बोलनेवाला साथी मिल जाता है, तो मार्ग तय करना सरल हो जाता है। इनके साथ चलने से हमारा मोक्षमार्ग सरल हो जाता है। अतः हम आचार्य महाराज की उपासना करें और उनके द्वारा
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