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पहुँचना। उस दिन राजा कुछ समय मनोविनोद के लिए एक झरोखे में बैठते हैं। तू पूर्ववत् नमस्कार करना और राजा को नीचे गिरा देना। तुझे वह सुख इस बार अवश्य ही मिल जायेगा। बालक हेयोपादेय का विचार न कर उस सुख को पाने की जिज्ञासा में ठीक समय पर राजभवन में प्रवेश करता है। राजा अपने महल के झरोखे में बैठे हुए थे। वह जाकर प्रणाम करता है और सड़क की ओर देखने लगता है। राजा भी उस पुत्र से परिचित तो था ही, वह भी खड़े होकर नीचे की ओर देखने लगता है। पुत्र मौका पाकर धक्का दे देता है। उस झरोखे के नीचे रुई का ढेर लगा हुआ था, अतः राजा को कोई चोट नहीं लगती। वह एक तरफ खड़े होकर कुछ सोचना ही चाहता है कि इतने में उस झरोखे की दीवार गिर जाती है। अब तो राजा बिना सोचे ही सबकुछ समझ गया कि यह बालक कोई बालक नहीं, देवता है या ज्योतिषी है। सामान्य मनुष्य को तो ज्ञान हो ही नहीं सकता। यह कैसे ज्ञात करता है ? दो बार इसने मेरे जीवन की रक्षा की है। इस बार राजा ने राजसभा में उसका विशेष सम्मान कर बहुत-सा धन देकर विदा किया।
पुत्र के घर आने पर पुत्र द्वारा बताई वार्ता से सभी आश्चर्यान्वित होते हैं, लेकिन पुत्र की जिज्ञासा शान्त अब भी नहीं हुई, क्योंकि उसे वह सुख प्राप्त नहीं हो सका। मुनीम जी से मिलने पर अपनी बात पूर्ववत् मुनीम जी से कहता है। मुनीम जी समझ जाते हैं कि इसका पुण्य सेठ जी से भी अधिक है, जिससे इसके गलत कार्य को भी सभी सम्मान देते हैं। मुनीम जी समझाते हैं - देखो, बेटा! यह सुख नहीं, दुःख है। मैंने जो कार्य बताये वह गलत थे, अपराध स्वरूप थे, जिससे राजा तुम्हें उस अपराधी से भी अधिक दण्डित करता, लेकिन तुम्हारे तीव्र पुण्योदय ने तुम्हें अपमान की जगह सम्मान दिलाया है। यह सब तुम्हारे पुण्य की महिमा है।
अरहन्त भगवान् की भक्ति ही संसारसमुद्र में डूबते हुए लोगों को
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