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का संस्कार रखिये । और यदि ऐसा उपयोग न बनाया जा सके, तो पर के उपकार में अपनी वृत्ति रखिये। पर का उपकार भी हम अपने भले के लिए कर रहे हैं कि मेरा परिणाम शुभ रह जाय, विषय-कषायों में न बह जाय । इसके लिए परोपकार धर्म अंगीकार किया जा रहा है। दूसरों पर ऐंठ बगराने के लिए, दूसरों को ताना मारने के लिए परोपकार नहीं होता। किसी को बढ़िया भोजन खिला दिया जाय और खा चुकने पर यों कहा जाय कि कितना बढ़िया भोजन खिलाया तुम्हें ? हाँ, साहब! बहुत अच्छा खिलाया। ऐसा तो तुम्हारे बाप ने भी कभी न खाया होगा। अहो! इस ताने से उसके चित्त में यह आ जाता है कि कोई ऐसी दवा पी लें कि अभी मरण हो जाये। परोपकार ताना देने के लिए होता है क्या? परोपकार तो इस विवेकी ने अपनी रक्षा के लिए किया है। इस कारण परोपकार करके भूल जाना चाहिए कि मैंने किसी का परोपकार किया। __ भैया! करते जावो परोपकार और भूलते जावो इस बात को कि मैंने परोपकार किया। यों निष्कपट भाव से, शुद्ध आशय सहित, जीवों की सेवा करना, उनको संकटों से बचाना, धर्म में उन्हें स्थिर करना, यह सब वैयावृत्य है। ऐसी भावना ज्ञानीपुरुष में होती है और इस भावना के प्रसाद से वह ऐसी महती पुण्यप्रकृति का बंध करता है कि जिससे अगले भव में उत्पन्न होने से पहिले ही दुनियाँ में आनन्द की खलबली मचने लगती है। जन्म के समय में भी और उनके जीवन के अनेक विशेष समयों में भी। कुछ भी हो, इसकी भी आशा न करना, किन्तु अपना प्रथम बचाव करना है और आत्मतत्त्व का शुद्धस्वरूप निहारना है। इसके प्रयोजन में वैयावृत्य की भावना रखनी चाहिए।
निशदिन वैयावृत्य करैया, सो निहचै भव-नीर तिरैया।
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