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गुणों में परिणाम मग्न होते हैं, वैसे-वैसे श्रद्धान बढ़ता है और जब श्रद्धान बढ़ता है, तब धर्म में प्रीति बढ़ती है, जिससे धर्म के नायक अरहन्तादि पंच परमेष्ठी के गुणों में अनुरागरूप भक्ति बढ़ती है। पाँच महाव्रतों सहित, कषायों से रहित, राग-द्वेष को जीतनेवाले श्रुतज्ञानरूप रत्नों के विधान, ऐसे पात्र का लाभ वैयावृत्य करने वाले को होता है। जिसने रत्नत्रयधारी की वैयावृत्य की, उसने स्वयं को तथा दूसरों को मोक्षमार्ग में स्थापित कर लिया।
अर्द्धचक्री नारायण श्रीकृष्ण की राजधानी द्वारिका में एक मुनिराज पधारे। कृष्ण को उनका रोग देखकर बड़ा दुःख हुआ। वे इस चिंता में पड़ गये कि इनका यह रोग कैसे दूर किया जाए? उन्होंने एक वैद्य से बहुत से औषधियुक्त लड्डू बनवाकर सारे नगर में बाँट दिये, जिससे कि मुनिराज चाहे नगर के किसी भी घर में आहार करें, वहाँ लड्डू का आहार दिया जाये। सारे नगर में यह सूचना करवा दी। अब मुनिराज जिस घर में जावें, उसी घर लड्डू मिलें। फल यह हुआ कि उनका रोग आठ दिनों में ही मिट गया। जैसे-जैसे रोग दूर होता था, वैसे ही श्री कृष्ण का हर्ष बढ़ता था। वे निरंतर षोडशकारण भावना भाते थे। फलतः उन मुनिराज की वैयावृत्ति के कारण उन्हें तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध हुआ।
धन खर्च कर देना सुलभ है, किन्तु रोगी की टहल-सेवा करना दुर्लभ है। वैयावृत्य भावना भाने से तीर्थंकर नाम की प्रकृति का बंध होता है। जो कोई श्रावक या साधु वैयावृत्य करता है, जो अपनी सामर्थ्य के अनुसार छ:काय के जीवों की रक्षा करने में सावधान रहते हैं, उनसे समस्त प्राणियों की वैयावृत्य होती है।
वैयावृत्य के विवरण से मूल शिक्षा - इस 'वैयावृत्य' शब्द के ही अर्थ से दो काम तो अपने समझ लीजिये – (1) निजशुद्ध ज्ञानानन्द स्वरूप अन्तस्तत्त्व की दृष्टि रखिये, उसके निकट रहिये, आश्रय करिये, सबको भूल जाइये, सबसे ऊँचा यह काम है, महान् पुरुषार्थ की बात है यह । इस
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