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आधी तुम्बी स्वर्णरस की भेज दी। पर वीतरागी को क्या आवश्यकता थी । कहा - इसे मिट्टी में डाल दो। जब शिष्यों ने यह समाचार उसके भाई को सुनाया, तो बड़ा दुःखी हुआ। अब वह शेष आधी तुम्बी लेकर स्वयं भाई के पास पहुँचा। पर भाई ने उसे भी गिरा दिया, तो वह बहुत दुःखी हुआ, बोला- तुमने यह क्या किया? 12 वर्ष की तपस्या यों ही बरबाद कर दी । लगता है कि दरिद्रता ने तुम्हारी बुद्धि को हर लिया है। अब बरसने लगा अमृत शुभचन्द्र मुनिराज के मुख से - भाई ! जब स्वर्ण ही चाहिये था, तो राज क्यों छोड़ा था? शान्ति लेने निकला था कि स्वर्ण ? स्वर्ण ही चाहिए तो ले भर ले जितना चाहे । और एक चुटकी रज अपने पैर के नीचे से निकालकर फेंक दी पहाड़ पर । पर्वत स्वर्ण का बन गया। भर्तृहरि लज्जित हो गये। 'ज्ञानार्णव' ग्रन्थ की रचना हो गई।
तप तो इच्छा-निरोध को कहते हैं । हमारा तप लौकिक इच्छाओं से रहित केवल आत्मकल्याण के लिए होना चाहिए ।
तप का मुख्य उद्देश्य मोहरूप अंधकार को दूर करके दुःखान्त संसार का उच्छेदन करना है। जब तक प्राणी के हृदय से मोह का विनाश न होगा, तब तक उसका संसारोच्छेद होकर मोक्ष प्राप्ति भी नहीं होगी । अतः मोह को छोड़कर अभिलाषाओं को दूर करना तप का मुख्य प्रयोजन है ।
तप की महिमा जिनागम में पद-पद पर गाई है। 'भगवती आराधना' में लिखा है कि जगत में ऐसा कोई पदार्थ नहीं जो निर्दोष तप से पुरुष प्राप्त न कर सके। जैसे-जैसे सोने में लगा हुआ मैल आग में सोने को तपाने से दूर हो जाता है, उसी प्रकार अनादिकाल से आत्मा के ऊपर जो मलिनता चढ़ी हुई है, वह तपस्या की आग से नष्ट हो जाती है। उत्तम प्रकार से किये गये तप के फल का वर्णन करने में कोई भी समर्थ नहीं हो सकता। उत्तम तप ही सब प्रकार से सुख देनेवाला है। कहा भी है
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