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जो तप तपै खपै अभिलाषा,
ते जन इह-भव पर-भव सुख चाखा। अर्थात् जो अभिलाषायें छोड़कर तपस्या करता है, उसको इस लोक एवं परलोक में सुख की प्राप्ति होती है।
आत्मकल्याण के इच्छुक जनों को अपनी शक्ति के अनुसार तप अवश्य करना चाहिये। "जं सक्कई तं कीरइ, जं च ण सक्कई तहेव सद्दहणं।
सद्दहमाणो जीवो पावई अजरामर ठाणं ।।" अपनी शक्ति को न छिपा कर सभी को तपस्या करनी चाहिए। यदि शक्ति न हो, तो पूर्णरूप से श्रद्धान करना चाहिए। जो मनुष्य तप का श्रद्धान भी करते हैं, वे जीव अजर-अमर पद को प्राप्त करते हैं। संयम की साधना तपस्या से होती है। स्वेच्छापूर्वक कष्ट को सहन करना तपस्या है। कष्टों और कठिनाइयों को सहन किये बिना संयम की साधना संभव नहीं है। भगवान् महावीर जन्म से ही अवधिज्ञानी थे। दीक्षा ग्रहण करते ही उन्हें मन:-पर्यय-ज्ञान भी प्राप्त हो गया था। वे जानते थे और दुनियाँ को पता लग गया था कि वे तीर्थंकर हैं, उन्हें मोक्ष अवश्य प्राप्त होगा। फिर भी उन्होंने दीक्षा लेकर बारह वर्ष तक घोर तप किया। अतः आत्मकल्याण के लिये तप करना अनिवार्य है।
सभी तपों में प्रधान तप तो दिगम्बरपना है। यदि संसार के बंधन से छूटना चाहते हो तो दिगम्बर दीक्षा धारण करो। उस तप से शरीर का सुखियापना नष्ट हो जाता है, उपसर्ग-परीषह सहने में कायरता का अभाव हो जाता है। मुनिराज के अट्ठाइस मूलगुणों का निर्दोष पालन करना बहुत बड़ा तप है। रत्नत्रय के साथ बाह्य और अन्तरंग दोनों प्रकार के तपों का आलंबन लेकर साधना करनेवाला ही मुक्ति को प्राप्त करता है। यही एक मुक्ति का मार्ग है। अतः सभी को प्रमाद को छोड़कर
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