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वृत्ति-परिसंख्यान, रस परित्याग, विविक्त शय्याशन कायक्लेश, प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य यथाशक्ति करना चाहिये ।
तप किये बिना इन्द्रियों के विषयों से लोलुपता नहीं घटती है, तप किये बिना तीनलोक को जीतनेवाले काम को नष्ट करने की सामर्थ्य नहीं होती है। तप बिना आत्मा को अचेत करने वाली निद्रा नहीं जीती जा सकती है। तप बिना शरीर का सुखिया स्वभाव नहीं मिटता है । यदि तप के प्रभाव के द्वारा शरीर को वश में रखा होगा तो क्षुधा, तृषा, उष्ण आदि परीषहों के आने पर कायरता उत्पन्न नहीं होगी, संयमधर्म से चलायमान नहीं होगा । तप करना कर्मों की निर्जरा का कारण है, अतः तप करना ही श्रेष्ठ है।
जो विषय- कषायों का त्याग करके इन बारह प्रकार के तपों को करते हैं, उन्हीं का जीवन सार्थक है। तप की महिमा अचिन्त्य है, वर्णनातीत है। तपश्चरण का कितना चमत्कार है, इसका एक जीता-जागता उदाहरण है।
एक रूपलक्ष्मी नाम की महिला थी । वह पंचमी के दिन से 5-5 दिन के उपवास किया करती थी। वह बड़ी भोली-भाली थी । उसने अपने जीवन में कभी रोना नहीं सुना था। एक बार वह अपने घर से कहीं बाहर जा रही थी। उसे रास्ते में एक रोती हुई महिला दिख गई । उसका बेटा मर गया था। जब रूपलक्ष्मी ने उसका रोना सुना, तो समझा कि यह स्त्री कोई गीत गा रही है। उसने कभी रोना सुना ही न था, इसलिये उसे गीत समझ लिया। वह उस रोने वाली स्त्री से कह उठी कि बहिन ! तुम तो बहुत अच्छा गा रही हो। उस महिला को बुरा लग गया कि देखो, हमारा तो पुत्र मर गया, जिससे हम रो रहे हैं और यह कह रही है कि तुम बड़ा अच्छा गीत गा रही हो । उसने यह प्रतिज्ञा की कि मैं भी इसको इसी तरह रुलाकर रहूँगी।
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