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शक्तितस्तप भावना
भव अर्णव के पार करन को, शक्तित: अपनावे। अनशन आदि बारह तपकर, भव अर्णव से तर जावे।। ग्रीष्म ऋतु पर्वत के ऊपर, शीत ऋतु में नदी समीप।
वर्षा में वृक्ष तले, तप करे जलाते केवलदीप।। शक्ति के अनसार तपश्चरण करने की भावना होना, सो शक्तितः तप भावना है। भवसमुद्र से पार होने के लिये अनशन आदि बारह प्रकार के तपों को अपनाना चाहिये, तपस्या संसार से पार उतारने के लिये नौका के समान है। जो साधक ग्रीष्म ऋतु में पर्वतों के ऊपर, शीत ऋतु में नदी के समीप बैठकर तथा वर्षा ऋत में वक्षों के नीचे तपस्या करते हैं, वे केवलज्ञान का दीप जलाते हैं।
यह शरीर दुःख का कारण है, अनित्य है, अस्थिर है, अशुचि है, कृतघ्न के समान है। करोड़ों उपकार करने पर भी जैसे कृतघ्न अपना नहीं होता है, उसी प्रकार शरीर का भी अनेक प्रकार से उपकार करने पर भी यह अपना नहीं होता है, अतः चाहे- जैसे उपायों से इसे पुष्ट करना उचित नहीं है, तप द्वारा कृष करने योग्य ही है, तो भी गुण रूपी रत्नों के संचय करने में कारण है।
शरीर के बिना रत्नत्रय धर्म नहीं होता। रत्नत्रय धर्म बिना कर्मों का नाश नहीं होता। इसलिये अपने प्रयोजन के लिये, विषयों में आसक्ति रहित होकर, सेवक के समान योग्य भोजन देकर अनशन, अवमौदर्य,
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