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मैं अन्त समय में अपने भगवान् का नाम भी नहीं ले पाऊँगा। आप चिन्ता न करें, जब मैं ‘समयसार' जी का स्वाध्याय करूँगा, तब आप आपरेशन कर लेना। वे 'समयसार' जी का स्वाध्याय करने लगे और डाक्टरों ने आपरेशन शरू कर दिया। जब उनका स्वाध्याय पूरा हो गया, तो वे बोले-अरे! क्या कर रहे हो? डाक्टर बोले – कुछ नहीं कर रहा हूँ, आपरेशन तो पूरा हो चुका है, अब तो आखरी टाँका लगा रहा हूँ।
इस संसार में सम्यग्ज्ञान के समान सुखदायक अन्य कोई वस्तु नहीं है। निरन्तर पढ़ने-सुनने में ही मनुष्यजन्म का समय व्यतीत करो। यह अवसर बीतता चला जा रहा है। जब तक आयु, काय, इंद्रियाँ, बुद्धि, बल ठीक है, तब तक मनुष्यजन्म की एक घड़ी भी सम्यग्ज्ञान के बिना नहीं खोओ।
निरंतर ज्ञान में उपयोग रहे, ऐसी भावना और ऐसी कोशिश रहती है इस ज्ञानी पुरुष की। अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग का क्या वर्णन करें. कितना निर्दोष अनुष्ठान है यह, निरन्तर ज्ञान की आराधना करना। जीव का धन, जीव का प्राण ज्ञान है, जो जीव का साथ नहीं छोड़ता है। ऐसे इस ज्ञान की उपासना के कारण जगत में अन्य कुछ व्यवसाय ही नहीं है।
धन का अर्जन सहज थोड़े पुरुषार्थ से जैसा होता है तो होने दो, किन्तु ज्ञान के अर्जन में अपना तन,मन,धन, वचन सबकुछ भी समर्पित कर दिया जाए और एक ज्ञान प्राप्त हो जाये तो सबकुछ पा लिया समझिये। धन तो उदय अनुकूल हो तो मिलता है, न अनुकूल हो तो कितना ही श्रम करें, नहीं मिलता है। दूसरी बात यह है कि मिल भी जाय तो भी उसमें रागभाव करके आकुलता ही बढ़ाई जाती है, और अंत में तो यह धन साथ जाता ही नहीं है। मृत्यु हो गयी, लो सारा धन छोड़कर चले जाना होता है। कौन-सा लाभ लूट लिया इस धन-वैभव से ? और आकुलता व चिंताएँ जो मोल ली हैं वे सब व्यर्थ ही मोल ली हैं। किन्तु ज्ञानधन ऐसा
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