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धन है कि जिसे चोर न चुरा सके, राजा न बाँट सके, मरने पर भी साथ जाए, संस्काररूप में जाये। ज्ञान जागृत है तो संतोष रहता है, शांति रहती है ।
भैया! कितना दुर्लभ यह जन्म है, फिर भी ऐसे कठिन मनुष्यभव को पाकर गप्पों में लगाना, मोहियों में ही अधिक समय बिताना और असार भिन्न, जड़, पौद्गलिक धन-वैभव के संचय में, उनकी कल्पना में समय गुजारना और जो अपना परमार्थ शरण है, सारभूत है, ऐसे ज्ञान के लिए समय न देना, इससे बढ़कर खेद की बात और क्या हो सकती है? जहाँ श्रेष्ठ मन मिला है, जहाँ इन्द्रियाँ व्यवस्थित हैं, बुद्धि भी काम करती है, ज्ञान का सुयोग भी मिला है, ऐसे अवसर को पाकर हे आत्मन्! तुम ज्ञानाभ्यास ही करो। ज्ञान के अभ्यास बिना एक क्षण भी व्यतीत मत करो । ऐसी भावना अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग में होती है ।
भैया! कुछ अपना परिचय भी प्राप्त करके देख लो कि जितना समय ज्ञान की दृष्टि में व्यतीत होता है उतना समय कितना सुन्दर सफल आनन्दमय व्यतीत होता है और जितना समय किसी से मोह / राग करने में, व्यर्थ की गप्प-सप्प में व्यतीत होता है, उतना वहाँ किस प्रकार परिणाम जाता है? मिला क्या ? और बल घटा, आत्मशक्ति घट गयी । अतः एक ध्यान रखो, यदि इस संसार के संकटों से छूटना है तो भावना बनावो कि मेरा ज्ञान की अर्जना में विशेष उपयोग रहे। जैसे समय मिलेगा तो शास्त्र स्वाध्याय करेंगे, ऐसा प्रोग्राम रहता है, बजाय इसके यह प्रोग्राम हो जाय कि मुझे समय मिलेगा तो दुकान, धन अर्जन या विषयवार्ता में चलेंगे। मेरे पास इनके लिये समय ही नहीं है। अब धर्मसाधना करना, पूजन करना, घंटा दो घंटा शास्त्र स्वाध्याय करना, चर्चा करना, इनमें ही समय विशेष लगेगा, ऐसा गृहस्थजनों को सोचना चाहिए।
भैया! निरन्तर ज्ञान में उपयोग रहे, ऐसी अपनी भावना रखनी
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