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वे एक दिन रास्ते में चलते-चलते पुस्तक पढ़ रहे थे, तो किसी कुँये में गिर पड़े, परन्तु वहाँ भी गिरते ही उठ बैठे और पुस्तक पढ़ने लगे। उनकी विद्यानिष्ठा से सरस्वती प्रसन्न हुई और प्रकट होकर बोली –क्या चाहते हो? महर्षि ने कहा – मार्ग में चलते हुये पढ़ सकूँ, इसलिये पैरों में दो आँखें लगा दो। तब से उनका नाम अक्षपाद हो गया। __ ऐसे ही एक अन्य विद्वान् हुये हैं, जिनका नाम 'वाचस्पति' था। वे बीस वर्ष तक एक दार्शनिक व्याख्या-ग्रन्थ लिखते रहे और उन्हें घर में उपस्थित पत्नी का पता भी नहीं चला। 20 वर्ष के बाद ग्रन्थ पूर्ण होने पर उन्हें याद आया कि मेरी पत्नी ने 20 वर्ष तक साध्वी की तरह जीवन बिताया और ग्रन्थलेखन में मुझे निराकुलता प्रदान की। उन्होंने पत्नी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुये अपने उस ग्रन्थ का नाम 'भामती' रखा, जो उनकी उस साध्वी पत्नी का नाम था और उसे अमर कर दिया। आज वैदिक दर्शनधारा के विद्वान् ‘वाचस्पति' को कम और ‘भामती' को अधिक जानते हैं। ज्ञानाराधना में डूबे हुये लोग भोजन का स्वाद भूल जाते हैं, दिन-रात का भान भूल जाते हैं।
पं. टोडरमल जी जब एक ग्रंथ लिख रहे थे, तो वे भोजन का स्वाद भी भूल गये थे। जब उनका ग्रंथ पूर्ण हुआ और वे भोजन करने बैठे, तो माँ से कहते हैं-माँ! आज भोजन में नमक नहीं डाला, तो माँ बोली-बेटा! लगता है आज तुम्हारा ग्रन्थ पूरा हो गया। मैं तो भोजन में पिछले छ: माह से नमक नहीं डाल रही थी, परन्तु तू ग्रन्थ लिखने में इतना तल्लीन था कि भोजन का स्वाद ही भूल गया।
एक बार श्री गणेशप्रसाद वर्णी जी को एक फोड़ा हो गया, जिसका आपरेशन करना जरूरी था। डाक्टरों ने कहा कि बेहोश किये बिना आपरेशन संभव नहीं है। वर्णीजी बोले–मैं बेहोश होकर तो आपरेशन नहीं करवाऊँगा, क्योंकि यदि आपरेशन करते समय ही मेरे प्राण निकल गये तो
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