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कैसे गुरु-शिष्य का संबंध बन सकेगा? खैर उसके अनुनय-विनय पर विद्याधर ने उसे वह विद्या दे दी। उस तापसी ने राजा के पास अपना चमत्कार दिखाना चाहा। इसी बीच ये विद्याधर युगल चांडाल वेष में उसके सामने पहुँचे । साधु ने मन में सोचा ये नीच इस समय मेरा चमत्कार घटाने के लिये क्यों आ गये? गुरु की अविनय के भाव आते ही उसकी विद्या समाप्त हो गई। तब लज्जित होकर तापसी ने सारी बातें बता दीं। राजा ने उन चांडाल दंपत्ती को नमस्कार कर विद्या माँगी। चांडाल ने कहा कि यदि आप कहीं भी मुझे देखें तो ऐसा कहें कि 'मैं आपकी ही चरण कृपा से जीता हूँ।' तब तो मैं आपको विद्या दे सकता हूँ। राजा ने स्वीकार कर लिया, चांडाल ने उसे विद्या दे दी।
एक दिन राजा सिंहासन पर बैठे थे। उनके पास बहुत मंत्रीगण व सभासद बैठे थे। उसी समय ये चांडाल युगल आये, राजा ने सिंहासन से उतरकर नमस्कार करके बड़ी विनय से कहा – प्रभो! मैं आपके चरणों की कपा से ही जीता है। इतना सनते ही वह सम्यग्दष्टि विद्याधर बहत प्रसन्न हुआ। राजा की विनय से प्रभावित होकर वे अपने असली विद्याधर के रूप में प्रगट हो गये और राजा के विनय गुण की प्रशंसा कर राजा को और भी अनेक विद्यायें देकर विजयार्ध पर्वत पर चले गये।
इस उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि जब लौकिक कार्य भी गुरु की विनय के बिना सिद्ध नहीं होते, तो परमार्थ कार्य की सिद्धि होना तो असंभव ही है। अतः सभी को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र व इनके धारी गुरुओं की विनय अवश्य करना चाहिए। विनय के बिना मनुष्य अपनी उन्नति कभी नहीं कर सकता। जो गुरुओं की विनय करता है, उसमें अनेक गुण अपने आप आ जाते हैं।
संसार में सभी जगह दुःख ही है। अभी आपने इस संसार को पहचाना नहीं। आप श्रीराम को भगवान् मानकर पूजते हैं, पर इसी संसार
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