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व्यवहार विनय और भी बहुत भेद हैं।
जिनेन्द्र भगवान् ने मनुष्यजन्म का सार विनयधर्म को कहा है। यह विनय संसाररूपी वृक्ष को जलाने के लिये अग्नि है। यह विनय तीनलोक के जीवों के मन को उज्ज्वल करनेवाली है। मिथ्याश्रद्धान के छेदने को विनय ‘शूल' है। विनय बिना मनुष्यरूप चमड़े का वृक्ष मानरूप अग्नि द्वारा भस्म हो जाता है। मानकषाय द्वारा यहीं पर घोर दुःख सहता है तथा परलोक में निंद्यजाति, निंद्यकुल में बुद्धिहीन-बलहीन होकर उत्पन्न होता है। विनयरहित को जिनेन्द्र भगवान् की शिक्षा ग्रहण नहीं होती है। विनयरहित अहंकारी जीव समस्त दोषों का पात्र होता है।
अहंकार के कारण व्यक्ति गुरुओं तक की निंदा कर देते हैं। जो व्यक्ति बचपन में विनय करना नहीं सीखते, वे अपने जीवन में अनेक प्रकार के कष्टों का सामना करते हैं। शास्त्रों में तो ऐसा लिखा है कि देव, धर्म या गुरु की निंदा करने से निकाचित कर्मों का बन्ध होता है, जिसका फल बिना भोगे नहीं छूटता। इसलिये सदा गुरुओं की भक्ति और विनय करना चाहिये।
गुरुओं की विनय के बल पर ही अर्जुन विशेष धनुर्धारी प्रसिद्ध हुये हैं। अनेक मुनि व श्रावकों ने भी विनय के बल से मोक्षमार्ग को प्रशस्त किया है।
एक तापसी जलस्तंभिनी विद्या के बल से यमुना के मध्य ध्यान करता था। एक बार एक विद्याधर की पत्नी अपने पति से उसकी प्रशंसा करने लगी। विद्याधर ने कहा कि यह मिथ्यातपसी है। देखो ! इसकी अज्ञानता मैं तुम्हें दिखाता हूँ। विद्याधर युगल ने चांडाल का वेश बनाकर नदी किनारे बड़ा-सा महल बनाया और भी अनेक चमत्कार करने लगे। साधु ध्यान छोड़कर उनके पास चला गया और बोला, 'महाशय! यह विद्या हमें दे दीजिये।' विद्याधर ने कहा कि मैं चांडाल हूँ। तुम ब्राह्मण हो। फिर
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