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बात ध्यान में आती है- अहो! सम्यग्दर्शन ही हमारा शरण है। इस सम्यक्त्व के बिना अनादिकाल से अब तक कुयोनियों में भ्रमण करते हुए चले आये हैं। यों सम्यक्त्व के प्रति विनय जगाना, यह है दर्शन विनय । अपने श्रद्धान में शंकादि दोष नहीं लगाना तथा सम्यग्दर्शन की विशुद्धता से ही अपना जन्म सफल मानना, सम्यग्दर्शन के धारकों में प्रीति रखना, स्वव पर का भेदविज्ञान करना दर्शन विनय है ।
ज्ञानविनय— सम्यग्ज्ञान की आराधना में उद्यम करना, सम्यग्ज्ञान के कारण जो चारों अनुयोगों के शास्त्र हैं, उनके श्रवण-पठन में बहुत उत्साहरूप होना तथा वन्दना - स्तवनपूर्वक बहुत आदरपूर्वक पढ़ना, वह ज्ञानविनय है। ज्ञान के आराधक ज्ञानीजनों का तथा जिनागम के ग्रंथों के प्राप्तरूप संयोग का बड़ा लाभ मानना, सत्कार - आदर आदि करना, यह सब ज्ञानविनय है ।
चारित्रविनय - अपनी शक्तिप्रमाण चारित्र धारण करने में हर्ष मानना, दिनों-दिन चारित्र कि उज्ज्वलता के लिये विषय - कषायों को घटाना तथा चारित्र के धारकों के गुणों में अनुराग, स्तवन, आदर करना, वह चारित्रविनय है।
तपविनय- इच्छाओं को रोककर, प्राप्त हुए विषयों में संतोष करके, ध्यान-स्वाध्याय में उद्यमी होकर, काम को जीतने के लिये तथा इंद्रियों की विषयों में प्रवृत्ति रोकने के लिये अनशन आदि तप में उद्यम करना, तप विनय है।
उपचार विनय- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, सम्यक्तप –इन चार आराधनाओं का उपदेश देकर मोक्षमार्ग में प्रवृति कराने वाले, तथा जिनका स्मरण करने से परिणामों का मैल दूर होकर विशुद्धता प्रकट हो जाती है, ऐसे पंचपरमेष्ठी के नाम की स्थापना की विनय, वन्दना, स्तवन करना, वह उपचार विनय है । उपचार विनय के लोक विनय,
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