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दर्शनविशुद्धि भावना
सम्यग्दर्शन के साथ जो लौकिक कल्याण की भावना होती है, उसे दर्शनविशुद्धि कहते हैं।
सम्यग्दर्शन के बिन प्राणी, मिथ्यादृष्टि कहलाता। दीर्घकाल तक फिरता रहता, दुर्गति के चक्कर खाता।।
दर्शनविशुद्धि उनकी होती, दोष पचीसों जो तजता। जल से भिन्न कमलवत् रहता, स्व आतम को वह भजता।।
(सिद्धान्त शतक) सम्यग्दर्शन के बिना यह प्राणी मिथ्यादृष्टि कहलाता है और दीर्घकाल तक दुर्गतियों में चक्कर खाता रहता है। इस संसार में जिस जीव का सम्यग्दर्शन शुद्ध होता है, वह जीव पच्चीस दोषों को त्याग देता है तथा संसार में जल से भिन्न कमलवत् रहता है और आत्मा की भावना भाता रहता है। सम्यग्दर्शन का नाश करनेवाले दोषों का त्याग करने में ही सम्यग्दर्शन की उज्ज्वलता है। आठ शंकादि दोष, तीन मूढ़ता, छह अनायतन और आठ मद – ये सच्चे श्रद्धान को मलिन करने वाले पच्चीष दोष हैं, इनको दूर से ही त्याग करना चाहिये।
हे भव्य जीवो! यदि इस मनुष्यजन्म को सफल करना चाहते हो तो सम्यग्दर्शन की विशुद्धता धारण करो। यह सम्यग्दर्शन धर्म का मूल है। सम्यग्दर्शन के बिना श्रावकधर्म भी नहीं होता है, मुनिधर्म भी नहीं होता है। सम्यग्दर्शन के बिना जो ज्ञान है, वह कुज्ञान है; जो चारित्र है, वह
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