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तीर्थंकर की महिमा का क्या कहना ! यह त्रिलोकपूज्य पद है। सब मनुष्य, नारायण, चक्रवर्ती एवं इन्द्र उन्हें नमस्कार करते हैं। तीर्थंकर धर्मतीर्थ के प्रवर्तक माने जाते हैं। तीर्थंकर कौन होते हैं? वे कौन से परिणाम हैं जिसके कारण तीर्थंकर होते हैं ? वे परिणाम सोलहकारण भावनायें हैं।
भगवान महावीर के जीव ने दो भव पूर्व नन्द चक्रवर्ती की पर्याय में मुनि अवस्था धारण की और उस मुनि अवस्था में अनेक प्रकार के व्रतादि के साथ सोलहकारण भावनाओं का चिन्तन किया, जिसके प्रभाव से वे तीर्थंकर बने।
राजा श्रेणिक ने मिथ्यात्व अवस्था में सातवें नरक की आयु का बंध किया था, लेकिन बाद में सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सोलहकारण भावनायें भाकर तीर्थंकरप्रकृति का बंध किया। जिसके कारण सातवें नरक से घटकर पहला नरक हो गया। अगली चौबीसी में वे 'पद्म' नाम के प्रथम तीर्थंकर होंगे।
इन भावनाओं के चिन्तन से लौकिक और पारलौकिक समस्त सुख मिलते हैं। आत्मा के विकास के लिये सभी को इन सोलहकारण भावनाओं को अवश्य भाना चाहिये।
ए ही सोलह भावना, सहित धरै व्रत जोय । देव-इन्द्र-नर-वंद्य-पद द्यानत शिव-पद होय।।
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