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ज्ञान के पारगामी अंगपूर्व श्रुत के धारी उपाध्याय परमेष्ठी की भक्ति करना, वह ‘बहुतश्रुत भक्ति ' है। 12 |
जिनशासन को पुष्ट करनेवाला, संशय आदि अंधकार को दूर करने में सूर्य के समान जो भगवान् का अनेकान्तरूप आगम है, उसके पठन, श्रवण, प्रवर्तन, चिंतवन में भक्तिपूर्वक प्रवर्तन करना, वह 'प्रवचन भक्ति' भावना है। 13।
अवश्य करने योग्य जो षट् आवश्यक हैं, वे अशुभ कर्मों के आस्रव को रोककर महान निर्जरा करनेवाले हैं। अशरण को शरण हैं, ऐसे आवश्यकों को एकाग्रचित्त से धारण कर निरंतर उनकी भावना भाना चाहिये। 14 |
जिनमार्ग की प्रभावना में नित्य प्रवर्तन करना चाहिये। जिनमार्ग की प्रभावना धन्यपुरुषों द्वारा होती है। अनेक लोगों की वीतराग धर्म में प्रवृत्ति व कुमार्ग का अभाव प्रभावना द्वारा ही होता है। 15 |
धर्म में, धर्मात्मा पुरुषों में, धर्म के आयतनों में, परमागम के अनेकांतरूप वाक्यों में परम प्रीति करना "वात्सल्य भावना' है। यह वात्सल्य भावना सभी भावनाओं में प्रधान है। वात्सल्य अंग सभी अंगों में प्रधान है, महामोह तथा मान का नाश करनेवाला है। 16।
इस कारण निर्वाणसुख को देनेवाली इन सोलहकारण भावनाओं को जो भव्य स्थिर चित्त से भाता है, चिंतन करता है, बहुत सन्मान करता है, उनमें रच-पच जाता है, वह सभी जीवों के हितरूप तीर्थंकरपना पाकर पंचमगति जो निर्वाण है, उसे प्राप्त करता है। सोलहकारण भावनाओं की महिमा का वर्णन करते हुये कवि ने लिखा है
सोलहकारण भाय, तीर्थंकर जे भये। हरषे इन्द्र अपार, मेरु पर ले गये।। पूजा कर निज धन्य लखो बहुचाव सों। हमहूँ षोडशकारण भावें भाव सों।।
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