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कुचारित्र है; जो तप है, वह कुतप है।
इस जीव ने अनादिकाल से मिथ्यात्व नाम के कर्म के वश होकर अपने स्वरूप की और परद्रव्यों के स्वरूप की पहिचान नहीं की। जो पर्याय कर्म के उदय से प्राप्त की उसी पर्याय को अपना स्वरूप जान लिया। अपने सच्चे स्वरूप का ज्ञान करने में अंधा होकर, अपने स्वरूप से भ्रष्ट होकर, चारों गतियों में भ्रमण करता आ रहा है। यह जीव देव-कुदेव को, धर्म-कुधर्म को, सुगुरु-कुगुरु को नहीं जानता। पुण्य-पाप का, इस लोक-परलोक का, त्यागने योग्य – ग्रहण करने योग्य का, भक्ष्य-अभक्ष्य का, शास्त्र-कुशास्त्र का विचार ही नहीं करता। कर्म के उदय के रस में तन्मय होकर सदाकाल ही कष्ट उठाता रहा है।
कोई अकस्मात् काललब्धि के योग से मनुष्यपर्याय जिनधर्म प्राप्त हुआ, तब इसने जाना कि मैं एक जाननेवाला ज्ञायक रूप, अविनाशी, अखण्ड, चेतना लक्षण, देहादि समस्त परद्रव्यों से भिन्न आत्मा हूँ। देह, जाति, कुल, रूप, नाम इत्यादि मुझसे अत्यन्त भिन्न हैं। राग, द्वेष, काम, क्रोध, मद, लोभादि कर्म के उदय से उत्पन्न हुये मेरे ज्ञायकस्वभाव में विकार हैं। जैसे स्फटिक मणि स्वयं तो स्वच्छ श्वेत है, उसमें डांक के संसर्ग से काला, पीला आदि रंग दिखता है; इसी प्रकार मैं आत्मा तो स्वच्छ, ज्ञायकभाव, निर्विकार, टंकोत्कीर्ण हूँ, मोहकर्म के उदय से राग-द्वेष आदि उसमें झलकते हैं, वे मेरा रूप नहीं हैं, पर हैं। इस प्रकार विचार कर पच्चीस दोषों से रहित दर्शनविशुद्धि भावना का चिन्तवन करना चाहिये। सम्यदर्शन एवं उसके पच्चीस दोषों का वर्णन इस ग्रंथ में विस्तार से किया जा चुका है।
जिस प्रकार जड़ के बिना वृक्ष नहीं होता, नींव के बिना मकान नहीं बनता। उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना धर्म नहीं होता। सम्यग्दर्शन ही मोक्ष का बीज है। 'छहढाला' में पं. दौलतराम जी ने कहा है कि
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