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कि जितने भी नारायण हुये हैं, वे किसी-न-किसी भव में नारकी भी हुये हैं। अतः आचार्य कहते हैं- “पाप से घृणा करो, पापी से नहीं। पंक से घृणा करो, पंकज से नहीं। रोग से घृणा करो, रोगी से नहीं।"
इसलिए पं. आशाधर जी ने लिखा है- "नाम का जैनी भी काम का है।" इस वाक्य को ध्यान में रखना चाहिये कि नाम का ही सही, कम-से-कम अहिंसा में आस्था तो रखता है। भले ही आचरण अभी जीवन में न हो। उसके प्रति सद्भावना रखो तो उसमें भी परिवर्तन आ सकता है।
प्रेम में अद्भुत सामर्थ्य है। प्रेम की भाषा में चमत्कारी आकर्षण रहता है। प्रेम और वात्सल्य के बल पर क्रूर-से-क्रूर प्राणी का भी हृदय परिवर्तित किया जा सकता है।
एक गाय चरते-चरते दूर जंगल में निकल गई। शेर की गिरफ्त में फँस गई। शेर उसे खाना चाहता था। गाय ने उससे गिड़गिड़ा कर विनय की- "आपकी क्षुधा की शांति के लिये मैं तैयार हूँ। पर मुझे थोड़ा समय दे दें। शाम हो चली है। मेरा छोटा बछड़ा है। भूखा होगा। उसको अंतिम बार दूध पिला दूंगी तो मन में संतोष रहेगा। मुझे थोड़ी देर के लिये छोड़ दें। मैं उसे दूध पिलाकर तुरंत लौट आऊँगी। फिर आप सहर्ष मुझे खा लेना।" शेर ने उसके गिड़गिड़ाने पर उससे वचन लेकर उसे जाने दिया। गाय अपने बछड़े के पास आई। बछड़े ने देखा कि माँ आज उदास है। उसने पूछा “माँ! क्या बात है ? तू उदास लगती है।''
गाय- “कुछ नहीं, बेटा! तू जल्दी दूध पी ले। मुझे जाना है। "कहाँ जाना है, माँ?" "कुछ पूछ मत । आ, जल्दी दूध पी ले।"
"नहीं, माँ! पहले बता, क्या बात है? कहाँ जाना है? इतनी जल्दी क्यों कर रही हो? बता, नहीं तो मैं नहीं पीता। आज भूखा ही रह जाता
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