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गाय को सारा वृत्तांत बताना पड़ा । बछड़ा बोला - "ऐसा कैसे होगा? मेरे जीते जी तू शेर का भोजन बने, असंभव । मैं तेरे साथ चलूँगा, पहले शेर मुझे खायेगा, तब तुझे छू सकेगा ।
गाय ने बहुत समझाया, पर बछड़ा नहीं माना। आखिर दोनों शेर के पास पहुँचे।
शेर आश्चर्य में पड़ गया। इतना - सा बछड़ा भी मेरे पास चला आ रहा है। गाय ने कहा- "अपने वचन के अनुसार मैं आ गई हूँ। आप मुझे अपना भोजन बनायें ।" पर उसके आगे बछड़ा आ गया और बोला- "मेरे रहते मेरी माँ को नहीं खा सकते। पहले मुझे खाओ ।" गाय आगे आ गई'माँ के रहते बेटे पर संकट नहीं आ सकता ।' गाय आगे होती तो बछड़ा आगे हो जाता। बछड़ा आगे होता तो माँ आगे आ जाती। दोनों एक दूसरे के लिये अपने प्राण उत्सर्ग करने को तैयार । माँ-बेटे में निष्ठा और त्याग की उत्कृष्ट भावना ने शेर का हृदय करुणा से भर दिया। शेर ने कहा"तुम्हारे निश्छल प्रेम / वात्सल्य की भावना ने मेरी भूख मिटा दी है। जाओ, अब तुम दोनों को मैं अभय देता हूँ ।" वात्सल्यभाव ने क्रूरता पर विजय पाई ।
सम्यग्दृष्टि वही है, जो प्रेम और वात्सल्य की भाषा समझता है। घ्रणा का उसके हृदय में कोई स्थान नहीं होता । वात्सल्य प्रगट हो जाये तो सम्यक्त्व प्रगट होने में अधिक समय नहीं लगता। बिना किसी स्वार्थ के अपने साधर्मी भाई के प्रति प्रेम की धारा का बहना वात्सल्य है। जिस प्रकार पानी बिना कारण के बहता है, वृक्ष बिना कारण के फल देता है, फूल बिना कारण के सुगन्ध देता है, दीपक बिना कारण के प्रकाश देता है, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि भी बिना कारण के अपना वात्सल्य सभी पर बरसाता है। यह वात्सल्य जिह्वा का नहीं, जीवन का विषय है | विचार
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