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किन्तु तृप्ति का सुख तो मिलेगा जल पीकर ही। सुख तो सम्यक्चारित्र के साथ जुड़ा हुआ है। अनुभव में सुख है। उस प्यासे पथिक को जो पहला आदमी मिला था, वह प्राणघातक था। ऐसे लोग होते हैं कापथस्थ, जो संसारमार्ग में प्रवृत्त कराते हैं।
क्या हमें माता-पिता की बात मानना चाहिये? क्या भगवान् महावीर ने अपने माता-पिता की बात मानी? त्रिशला माँ की आकांक्षा हुई कि पुत्र मुझे सासू बना दे, किन्तु पुत्र ने कहा, "नहीं। माँ ही रखूगा, सासू नहीं बनाऊँगा।" माता-पिता की बात मानना सांसारिक व्यवस्था तो ठीक है, किन्तु जहाँ पुत्र अलौकिक सुख की खोज करना चाहता हो, जहाँ वह आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर हो, वहाँ संसार-मग्न माता-पिता की आज्ञा नहीं मानना। सामाजिक व्यवस्थाओं में माता-पिता का महत्व हो सकता है, किन्तु पारमार्थिक क्षेत्र में उनका कोई महत्व नहीं है। ऐसे लोग जो "कापथस्थ' हैं, उन की सेवा न करें, ऐसे लोगों के विषय में सम्मत्ति न दें
और इनका कीर्तन न करें। संसारमार्ग में स्थित सभी लोग “कापथस्थ" हैं। इनसे बचो, इनके कीर्तन से बचो, इनको साथ लेकर न चलो। यही अमूढदृष्टि है।
जिस प्रकार किंपाक फल दिखने में सुंदर दिखता है, परन्तु भक्षण करने के बाद प्राणों को हरण करने वाला है, उसी प्रकार बाह्य में मनोज्ञ प्रतीत होने वाले मिथ्या धर्म अंत में मोह, क्लेश को देने वाले हैं। मिथ्यादृष्टियों के ज्ञानादि की प्रशंसा को छोड़कर अनुमान और प्रत्यक्ष ज्ञान से अबाधित जिनेन्द्र-कथित धर्म में रुचि होना 'अमूढदृष्टि' अंग है।
सम्यग्दृष्टि अमूढ़ (ज्ञानी) होता है, उसे स्व व पर में भ्रम नहीं होता। वह शरीर, स्त्री, पुत्र आदि को अपना कहता हुआ भी जानता है कि मैं तो चैतन्यस्वरूपी आत्मा हूँ, ये पर-पदार्थ कभी भी मेरे नहीं हो सकते। वह मन, वचन व काय से लौकिक व्यवहार चलाता है, परन्तु उसका मन सदा चेतना से ही जुड़ा रहता है। वह संसार को नाटकवत् देखता है। नाटक
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