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अपने सिर को सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के अलावा और कहीं भी नहीं झुकाना चाहिये। विचार करो, जब आप किसी चबूतरे के चक्कर काटने जाते हो, वहाँ किसी ने आपसे पूछ लिया- भैया! कहाँ से आये हो? कौन हो? आपने कहा- 'मैं जैन हूँ।' अहो! आपने भगवान् अरहंतदेव की श्रद्धा कहाँ पटक दी? एक नौकर ने अपने देश की पगड़ी को नहीं झुकने दिया और एक आप हो जो अरहंतदेव के भक्त होकर इस सिर को कहाँ-कहाँ टेकने पहुँच जाते हो। ध्यान रखना, सम्यग्दृष्टि सभी मूढ़ताओं से दूर रहता है।
एक सज्जन ने आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से पूछा- “क्या सम्यक्त्व में सुख की व्याप्ति है? सम्यक्त्व को इतना महत्व क्यों दिया जाता है?" उन्होंने कहा- "सम्यक्त्व में सख की व्याप्ति नहीं हो सकती। हाँ सम्यक्त्व के साथ जो प्रयास जुड़ा हुआ है, उसमें सुख की व्याप्ति है। सम्यक्त्व होने पर सुख का विश्वास हो जाता है। अतः सम्यक्त्व का बड़ा महत्व है।"
एक व्यक्ति मरुस्थल में फँसा हुआ है। प्यास के कारण बेचेन है। कहीं पानी के दर्शन नहीं। एक व्यक्ति उसके हाथों में एक लोटा थमा देता है। उस प्यासे की आँखें खुली हुई हैं। झाँककर देखता है, लोटे में पानी तो है, किन्तु जहर मिश्रित है। पीकर तृप्ति तो मिलेगी, किन्तु आपत्ति आ जायेगी। वह आदमी मना कर देता है, क्योंकि पदार्थ तरल दिखता है, किन्तु भिन्न है। "मैं नहीं पिऊँगा" वह आदमी कह देता है। थोड़ा आगे चलता है। सोचता है कहीं छायादार पेड़ मिल जाये तो थोड़ा विश्राम कर लूँ।” आगे चलकर फिर एक आदमी मिलता है। कंधे पर हाथ रखकर कहता है "चिंता न करो, दो कि.मी. और, फिर एक बहुत अच्छा सरोवर है। खूब जल पीना।" उस प्यासे पथिक को विश्वास हो गया पानी मिलने का। एक चित्र खिंच गया आँखों के सामने। विश्वास हो गया सुख का,
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