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तो निश्चित है, एक-न- एक दिन तो होना ही है । यदि मृत्यु होगी तो पुनः जन्म मिल जायेगा, परन्तु यदि सम्यक्त्व चला गया तो पुनः मिलना कठिन है। अतः मैं मृत्यु को वरण करूँगा, परन्तु आपको नमस्कार नहीं करूँगा । आचार्य समंतभद्रस्वामी ने लिखा है
भयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवागमलिङ्गिनाम् ।
प्रणामं विनयं चैव न कुर्यः शुद्धदृष्टयः । 130 ।। र.क.श्रा. । । शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव भय से, आशा से, राग से, स्नेह से और लोभ के वश होकर वीतरागी देव - शास्त्र - गुरु को छोड़कर अन्य कुदेवादि को नमस्कार नहीं करता ।
भारत के सम्राट का एक नौकर बहुत ईमानदारी से काम करता था । उसके लिये सम्राट ने प्रसन्न होकर अपनी पगड़ी उतारकर दे दी। वह नौकर पगड़ी को लेकर घर आ गया। कुछ समय पश्चात् वह नौकर विदेश में अन्य राजा के यहाँ जाकर नौकरी करने लगा । विभिन्न देशों की परम्परा भिन्न-भिन्न होती है। जिस देश में वह नौकर गया था, वहाँ राजसभा में प्रवेश करता है। उसने अपनी पगड़ी उतारकर हाथ में ले ली, फिर राजा को नमस्कार किया। राजा आग-बबूला हो गया और बोला'तुमने राजसभा की गरिमा को समाप्त कर दिया । तुमने बंधी पगड़ी को उतारकर नमस्कार करने की हिम्मत कैसे की ?' नौकर खड़ा होकर कहता है- राजन्! मैं आपका सेवक हूँ, परन्तु ये पगड़ी आपकी नौकर नहीं है । मुझे क्षमा करना, मुझे अभयदान दो। ये भारत देश के सम्राट की पगड़ी है, यह पगड़ी आपके चरण में नहीं झुकेगी। मैं आपका सेवक हूँ, मैं आपके चरणों में झुक सकता हूँ, परन्तु यदि मेरी पगड़ी झुक जायेगी तो मेरा भारत देश झुक जायेगा। मैं अपने देश को सेवक के रूप में नहीं देख सकता। राजा यह सुनकर दंग रह गया । इतनी देशभक्ति कि सिर झुका लिया, परन्तु पगड़ी नहीं झुकने दी ।
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