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क्या पवन से कभी मेरु हिलता है? नहीं। उस सम्यग्दर्शन में मेरु जैसा अकम्प सम्यग्दृष्टि जीव कुधर्म- पवन से जरा भी डिगता नहीं । देव - गुरु-धर्म सम्बन्धी मूढ़ता उसे होती नहीं। उनकी उचित पहिचान करके सच्चे वीतरागी देव - गुरु-धर्म को ही वह नमन करता है ।
रेवती रानी की ऐसी दृढ़ धर्म - श्रद्धा देखकर क्षुल्लक जी को बहुत प्रसन्नता हुई, तब अपने असली स्वरूप में प्रगट होकर उसने कहा- “हे माता! क्षमा करो। चार दिन से इन ब्रह्मा, विष्णु, शंकर आदि का इन्द्रजाल मैंने ही खड़ा किया था । पूज्य श्री गुप्ताचार्य महाराज ने आपके सम्यक्त्व की प्रशंसा की थी, इसलिए आपकी परीक्षा करने के लिए मैंने यह सब किया था। अहा! धन्य है आपके श्रद्धान को, धन्य है आपके अमूढदृष्टि अंग को । हे माता! आपके सम्यक्त्व की प्रशंसापूर्वक श्री गुप्ताचार्य महाराज ने आपके लिए धर्मवृद्धि का आशीर्वाद भेजा है ।"
अहो! मुनिराज के आशीर्वाद की बात सुनते ही रेवती रानी को अपार हर्ष हुआ। हर्ष से गद्गद् होकर उन्होंने यह आशीर्वाद स्वीकार किया और जिस दिशा में मुनिराज विराजित थे उस तरफ सात कदम चल कर मस्तक नवा कर उन मुनिराज को परोक्ष नमस्कार किया । विद्याधर राजा ने रेवती माता का बहुत सम्मान किया और उनकी प्रशंसा करके सम्पूर्ण मथुरा नगरी में उनकी महिमा फैला दी। राजमाता की ऐसी दृढ़ श्रद्धा और जिनमार्ग की ऐसी महिमा देख कर मथुरा नगरी के कितने ही जीव कुमार्ग छोड़ कर जिनधर्म के भक्त बन गये और बहुत से जीवों की श्रद्धा दृढ़ हो गई। इस प्रकार जैनधर्म की महान प्रभावना हुई ।
सम्यग्दृष्टि सच्चे देव- शास्त्र - गुरु को छोड़कर अन्य कुदेवादि को नमस्कार नहीं करता । यदि उसके सामने एक हजार सिर वाला कोई यक्ष खड़ा हो जाये और कहे कि आप मुझे नमस्कार करिये, अन्यथा मैं आपको मार डालूँगा, आपका भक्षण कर लूँगा, तब वह सम्यग्दृष्टि कहता है 'मृत्यु
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