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में जिस समय अभिनेतागण अभिनय कर रहे हैं, उसी समय वे स्वयं अपने उस अभिनय के दर्शक भी होते हैं। अभिनय करते हुये भी वे लगातार यह जान रहे हैं कि यह तो अभिनय है। वहाँ भी दो धारायें एक-साथ चल रहीं हैं। हम कह सकते हैं कि वे रोते हुये भी रोते नहीं हैं और हँसते हुये भी हँसते नहीं हैं। चाहे गरीब का अभिनय कर रहे हों, चाहे करोड़पति का, दर्शकों को अपनी उस भूमिका के दुःख-सुख को दिखाते हुये भी वे वास्तव में दुःखी-सुखी नहीं होते, क्योंकि अपने असली रूप का उन्हें ज्ञान है। अभिनय करते हुये भी निरन्तर अपनी असलियत उन्हें याद है। उसे वे भूले नहीं हैं, भूल सकते भी नहीं हैं। और यदि उन्हें कहा जाय कि तुम जिसका अभिनय कर रहे हो, उस रूप ही अपने आपको वास्तव में देखने लगो, तो वे यही उत्तर देंगे कि यह तो नितान्त असम्भव है, किसी हालत में भी यह नहीं हो सकता, क्योंकि मुझे अपने मूल स्वरूप का ज्ञान है। अमिताभ बच्चन पिक्चर में किसी भिखारी का रोल कर रहा हो और कोई उससे कहे कि तम अपने को भिखारी ही समझो. तो वह कहेगा कि यह कभी भी संभव नहीं है, क्योंकि मुझे मालूम है कि मैं अरबपति अमिताभ बच्चन हूँ, भिखारी नहीं हूँ। __यही स्थिति उस सम्यग्दृष्टि ज्ञानी की है। उसे परद्रव्यों से भिन्न अपने असली स्वरूप का दृढ़ श्रद्धान व ज्ञान हुआ है, अतः शेष सब नाटक दिखने लगा। अभी उसे अभिनय करना पड़ रहा है, क्योंकि अभी वह स्व में ठहरने में असमर्थ है। परन्तु इस समस्त अभिनय के बीच वह जान रहा है कि इसमें मेरा अपना कुछ भी नहीं है। उपयोग चाहे उसका बाहर जाये, परन्तु भीतर श्रद्धा यही रहती है कि मैं पर से भिन्न अकेला शुद्ध चेतन हूँ। यदि उससे यह कहा जाये कि तू इस शरीर को या कर्म को अपने रूप देख, तो वह कहेगा- कैसे देखू ? जब मैं उन रूप हूँ ही नहीं, तो उस रूप स्वयं को देखना तो सर्वथा असम्भव ही है। मैं तो अब अपने को अपने रूप
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