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राजा ने कुछ दिन वहाँ मुनिराज का उपदेश सुना और भक्ति पूर्वक उनकी सेवा की और उनके समीप क्षुल्लक हो गया। तत्पश्चात् उन्होंने मथुरा नगरी की यात्रा पर जाने का विचार किया, क्योंकि वहाँ से जम्बूस्वामी ने मोक्ष पाया था और उस समय अनेक मुनिराज वहाँ विराजमान थे। उनमें भव्यसेन नाम के एक मुनि बहुत ही प्रसिद्ध थे। उस समय मथुरा में वरुण राजा राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम था रेवती ।
एक समय उन क्षुल्लक जी ने मथुरा जाने की अपनी इच्छा गुप्ताचार्य के सामने प्रगट की और आज्ञा माँगी तथा वहाँ विद्यमान संघ के लिए कोई सन्देश देने के संबंध में पूछा। उस पर आचार्य श्री ने सम्यक्त्व की दृढ़ता का उपदेश देते हुये कहा - " आत्मा का सच्चा स्वरूप समझने वाला जीव वीतराग अरहन्त देव के अलावा अन्य किसी को भी देव नहीं मानता है । जो देव नहीं है, उसे देव मानना देवमूढ़ता है- ऐसी मूढ़ता धर्मी को नहीं होती। मिथ्यामत के देवादिक बाहर से देखने में कितने भी सुंदर दिखते हों, ब्रह्मा, विष्णु या शंकर भले कोई भी हों, परन्तु धर्मी जीव उनके प्रति आकर्षित नहीं होते। मथुरा की राजरानी रेवती देवी अभी सम्यक्त्व की
रक है, जिनधर्म की श्रद्धा में वह बहुत ही दृढ़ है । उसे धर्मवृद्धि का आशीर्वाद कहना तथा वहाँ विराजमान सुरत मुनि को, जिनका चित्त रत्नत्रय में रत है- उन्हें वात्सल्यपूर्वक नमस्कार कहना।”
इस प्रकार आचार्यभगवान् ने सुरत मुनिराज को तथा रेवती रानी के लिए संदेश कहा, परन्तु भव्यसेन मुनि को तो याद भी नहीं किया । इस पर क्षुल्लक जी को बहुत आश्चर्य हुआ, फिर भी आचार्य महाराज को याद दिलाने के उद्देश्य से पूछा - "क्या और किसी को कुछ कहना है? परन्तु आचार्य श्री ने इस पर विशेष कुछ नहीं कहा। क्षुल्लक जी को ऐसा लगा“क्या आचार्यदेव भव्यसेन मुनि को भूल गये हैं? नहीं, नहीं। वे तो भूलेंगे नहीं। वे तो विशेष ज्ञान के धारक हैं, इसलिए उनकी इस आज्ञा
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