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में अवश्य कोई रहस्य होगा। ठीक है, जो होगा वह प्रत्यक्ष दिखेगा।"
मन-ही-मन में ऐसा समाधान करके क्षुल्लक जी ने आचार्यदेव के चरणों में नमस्कार किया और वे मथुरा की तरफ निकल पड़े।
मथुरा में आते ही प्रथम उन्होंने सुरत मुनिराज के दर्शन किये। वे बहुत ही शान्त और रत्नत्रय का पालन करने वाले थे। क्षुल्लक जी ने उन्हें नमस्कार किया और उन्हें गुप्ताचार्य का सन्देश कहा।
क्षुल्लक जी की बात सुनकर सुरत मुनिराज ने प्रसन्नता व्यक्त की और स्वयं भी विनयपूर्वक हाथ जोड़कर श्री गुप्ताचार्य के प्रति परोक्ष नमस्कार किया। मुनिवरों का एक-दूसरे के प्रति ऐसा वात्सल्य भाव देखकर क्षुल्लक जी बहुत प्रसन्न हुए। शास्त्र में सच ही कहा है
ये कुर्वन्ति सुवात्सल्यं भव्या धर्मानुरागतः ।
सधर्मिकेषु तेषां हि सफलं जन्म भूतले।। अहो! जो भव्यजीव धर्म से प्रीति होने के कारण साधर्मी जनों के प्रति वात्सल्य करते हैं, उनका जन्म जगत में सफल है।
प्रसन्नचित्त से भावपूर्वक बारम्बार मुनिराज को नमस्कार करके क्षुल्लक जी वहाँ से निकले और भव्यसेन मुनिराज के पास आये। उन्हें बहुत शास्त्रज्ञान था और लोगों में वे बहुत प्रसिद्ध थे। क्षुल्लक जी उनके साथ थोड़े समय रहे, परन्तु उन मुनिराज ने न तो आचार्यसंघ का कोई समाचार पूछा और न कोई उत्तम धर्मचर्चा की। मुनि के योग्य आचार-व्यवहार भी उनका नहीं था। यद्यपि वे शास्त्र पढ़ते थे, फिर भी शास्त्रानुसार उनका आचरण नहीं था। मुनिराजों को नहीं करने योग्य प्रवृत्ति वे करते थे। यह सब अपनी आँखों से देखकर क्षुल्लक जी की समझ में आ गया- "ये भव्यसेन मुनि चाहे जितने प्रसिद्ध हों, परन्तु वे सच्चे मुनि नहीं हैं, तो फिर गुप्ताचार्य उन्हें क्यों याद करेंगे? _ इस प्रकार क्षुल्लक जी ने सुरत मुनि और भव्यसेन मुनि की स्वयं आँखों से देखकर परीक्षा की। रेवती रानी को भी आचार्य महाराज ने
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