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दो।"
देव से कामना करने की अज्ञानता सम्यग्दृष्टि में नहीं होती। उसे ज्ञान है कि अच्छी या बुरी जैसी भी परिस्थिति बनी है, संयोग प्राप्त हुआ है, वह स्वयं के कर्मों से प्राप्त हुआ है। यह संयोग तब टलेगा, जब कर्म कटेंगे।
"भगवान् न किसी पर नाराज होते हैं, न किसी पर प्रसन्न होते हैं। सच्चे भगवान् तो वो हैं, जो न तो निंदा से अप्रसन्न होते हैं, न ही पूजा–भक्ति से प्रसन्न। वे सभी परिस्थितियों में तटस्थ भाव रखते हैं। उसे जानने की कोशिश करो। वह भगवान् तुम्हारे अंतर में विराजमान है।" सम्यग्दृष्टि किसी तरह की मूढ़ता जीवन में नहीं आने देता। कुदेवों की नहीं, स्वयं में विराजित दिव्यत्व की पूजा करो।
तीसरी है गुरुमूढ़ता। मिथ्यावादी, तंत्र-मंत्र, कान फूंकनेवाले चमत्कारों, सम्मोहन आदि विद्या से युक्त व्यक्तियों को गुरु बनाने की मूढ़ता में व्यक्ति स्वचेतना की गरिमा से वंचित हो जाता है। जिन्हें कुछ भी नहीं मिला, जिन्होंने कुछ नहीं जाना, कुछ भी नहीं पाया, उनके समक्ष भिखारी बन कर खड़े होने से बड़ी मूढ़ता क्या हो सकती है? गुरु की खोज में देखना होगा कि जिसे तुम गुरु बना रहे हो या मान बैठे हो, वह तुमसे श्रेष्ठ है भी या नहीं।
इस भरतक्षेत्र में विजयार्ध पर्वत है। उस पर विद्याधर मनुष्य रहते हैं। उन विद्याधरों के राजा चन्द्रप्रभ का चित्त संसार से विरक्त हुआ और वे राज्य का कार्यभार अपने पुत्र को सौंप कर तीर्थयात्रा करने निकल पड़े। वे कुछ समय दक्षिण देश में रहे। दक्षिण देश के प्रसिद्ध तीर्थों के और रत्नों के जिनबिम्बों का दर्शन करके उन्हें बहुत आनन्द हुआ। दक्षिण देश में उस समय गुप्ताचार्य नाम के महान मुनिराज विराजमान थे। वे विशेष ज्ञान के धारक थे और मोक्षमार्ग का उत्तम उपदेश देते थे। चन्द्रप्रभ
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